मुझे पता नहीं कि बाकी लोग इस बात से कितना सहमत हैं कि हम 90’s में जन्म लेने वाले लोगों का बचपन कितना तिलिस्मी और जादुई था। आज जब अभी ऐसा वक़्त चल रहा है जब हम अपने कमरे में बैठकर आसानी से नॉस्टैल्जिक होना अफ़्फोर्ड कर सकते हैं, तब हमें रह रहकर महसूस किया है कि हमने एक कितना शानदार दौर जिया है। एक बहुत ही बेहतरीन दौर को देखा है। कितनी यादें बनाई हैं।
मेरी याददाश्त अच्छी है। मैं अपने जीवन की काफी पुरानी यादों को अब भी अपने दिमाग के बॉयोस्कोप में अच्छे से देख सकता हूँ। मुझे याद है अपने पिता के कंधे पर बैठकर होली के लिए पिचकारी खरीदने जाना। मैं बचपन से ही अय्याश किस्म का था। 3 या 4 साल का रहा होगा जब होली के दिन बोतल में शरबत पीकर शराबियों जैसा अभिनय करता था। उस समय ऐसा अभिनय करने पर कोई अवार्ड नहीं मिलता था। घर आकर मां के हाथों पिटाई होती थी जिसमें एक थप्पड़ खाने से पहले ही पिता आकर बचा लेते थे। हम मां को आंखों ही आंखों में चिढ़ाते थे कि पापा हैं अभी मार के दिखाओ। जिसके उत्तर में मां भी आंखों आंखों में कहती कि पापा बस 5 6 दिन की छुट्टी पर हैं, उसके बाद हम हीं हैं।
वो पुराने दिन ऐसे थे जैसे मानों हम बच्चे अब भी इस दुनिया में आने का जश्न मना रहे हों। हाथों को मोटरसाइकिल बनाकर हम दुनिया भर की दूरी नाप लेना चाहते थे। वो पुराने दिन वैसे थे जब हम एक अभिनेता, वैज्ञानिक, सुपरहीरो सबकुछ हुआ करते थे।
मुझे याद है बचपन में जब भी जन्मदिन आता था हमें नए कपडे मिलते थे। बात तब की है जब उस समय मोहरा फ़िल्म नई नई रिलीज हुई थी। उस समय घर मे मौजूद ओनिडा ब्लैक एंड वाइट टीवी पर एटीएन नामक एक चैनल पर मोहरा फ़िल्म का ‘तू चीज बड़ी है मस्त-मस्त’ गाना खूब चलता था। मैं उस समय वैसा नहीं था कि मुझे रवीना टंडन से प्यार हो जाता हां लेकिन मुझे उस गाने में अक्षय कुमार के उस ड्रेस से प्यार हो गया था। मुझे याद है मैं उस ड्रेस के लिए घंटो रोया था। मेरे लिए शायद काले कपडे आये थे लेकिन वो माथे पर बांधने वाला साफा नहीं आया था जिसको पहन कर मैं उस फिल्म का अक्षय कुमार बनता। बाद में मां ने काले रंग के गमछे जैसे कपडे को मेरे सर पर बांध दिया था। मैं खुश हो गया था। उस दिन मैनें घण्टो अपने घर के आंगन में अक्षय कुमार जैसा डांस किया था। उस जमाने में अगर इंटरनेट होता तो मेरा वो डांस का वीडियो वायरल जरूर होता। क्यूट किड डांसिंग।
मैं उस समय इतना छोटा था कि मेरे बड़े भाई मुझे अपने साथ क्रिकेट नहीं खिलाते थे। इसलिए मैं अपने हमउम्र लड़को के साथ ड्रैगनफ्लाई पकड़ा करता था या फिर मुर्गियों के चूजे पकड़ने की कोशिश करता था। मुझे याद है एक बार एक मुर्गी ने मुझे इसी वजह से झपट्टा मारा था। जो बच्चे बचपन में हीं अपनी शरारत का सबक पा लेते थे वो आगे फिर वैसी शरारत नहीं करते थे। मैं भी फिर कभी मुर्गियों के चूजों के पीछे नहीं भागा। ये वो दौर था जब धनबाद झारखंड की जगह बिहार में ही था। मैं उस समय इतना छोटा था कि मुझे धनबाद में मुरलीडीह की जगह और कोई नाम याद नही था। वासेपुर शायद होगा उस समय पर मेरे जेहन में नहीं था।
धनबाद के बाद बचपन का एक नया दौर मुजफ्फरपुर में शुरू हुआ। मुजफ्फरपुर उस समय बिहार का एक बड़ा शहर था। वहां यूनिवर्सिटी थी। एक बहुत नामी कॉलेज हुआ करता था वहां। अच्छे स्कूल होते थे। ये बिगबबूल चबाकर कूल बनने वाला दौर था। बिग बबूल के स्टीकर जमाकर कलेक्टर बनने वाला दौर था। ये वो दौर था जब शायद 1 रुपये में पतंग का पूरा मांझा मिल जाता था। हालांकि 1 रुपये का मांझा खरीदना भी उस समय एक अमीरी थी। इसलिए मेरे बड़े भाई भात और पीसे हुए शीशे की सहायता से खुद मांझा बनाते थे। मेरा उस समय ये काम होता था कि मैं बस इस बात की निगरानी करता कि कहीं मां न आ जाये। ये वो दौर था जब आसमान नीला हुआ करता था और उस आसमान में मोहल्ले भर की पतंगे आसमान को चूम लेने की होड़ में होते थे। किसी भी पतंग के कटते ही नीचे पतंगबाजी देख रहे बच्चों का झुंड पतंगों के पीछे भागा करता था गोया की ये पतंग पतंग न हो बल्कि कोई टूटता तारा हो। कई बार पतंग लूटने के चक्कर में पतंगे फट जाती थी और फिर दो गुटों के बीच लड़ाई शुरू होती थी। लड़ाइयां अगर इतनी मासूम होती तो शायद कभी हथियारों का अविष्कार नहीं होता।
पतंगबाजी के अलावा उस दौर में एक और लग्जरी हुआ करती थी। उस लग्जरी का नाम wwf ट्रम्प कार्ड था। रैंक 1 ब्रेट हार्ट और गेम खत्म। याकुजुना, अब्दुल्लाह, लक्स लूजर, पापा सैनगों, टटांका, ब्रिटिश बुलडॉग ये कुछ नाम थे जो उस समय बहुत पोपलूलर थे। ये वो दौर था जब WWF, WWF हीं था WWE नहीं हुआ था। और उस समय हमें यह लगता था कि ये बिल्कुल सच है।
पतंगबाजी, ट्रम्प कार्ड, पौसम पा, रंग रंग तुझे कौन सी पसंद, छुआ छूत, ड़ेंगा पानी, जंजीर, विष अमृत, घर घर इत्यादि खेल उस समय बहुत लोकप्रिय थे। जेंडर सेंसिटिविटी और जेंडर डिफरेंस का फर्क उस समय हल्का हल्का हमें समझ आने लगा था। शायद इसलिए हम कई बार उन लड़कों को अपने ग्रुप से निकाल देते थे जो अपनी बहनों के साथ छत पर स्टपो या कीतकित जैसे खेल खेलते थे। हालांकि जब दो तीन बार मैं छत पर अपने घर के बगल वाली लड़की के साथ घर घर खेलते हुए पकड़ा गया तब मैनें सबको कहा था कि सब समान होते हैं। कितकित खेलने से कोई लड़की थोड़े ही हो जाता है। फिर हम सब मिलकर कितकित खेलते।
वो दौर, वो दौर था जब दुनिया घर के 1 किलोमीटर के अंदर तक ही थी। उस से बाहर की दुनिया हमने कभी अकेले एक्सप्लोर नहीं कि थे। हम छोटे थे और उस समय स्कूल नहीं जाते थे। घर पर भी नहीं पढ़ते थे। वो दौर बस खेलने और दुनिया को समझने वाला था। एक बार मुझसे कुछ बड़े लड़के ने बोला कि चलो मेरा स्कूल देख लो। घूम कर आते हैं। मैं और मेरा छोटा भाई उसके साथ चल दिये। वो रास्ते भर हमें वापिस लौटने का रूट समझा रहा था। हम उसके स्कूल गए। स्कूल के सामने वाले बूढ़े बाबा के दुकान से 1 रुपये का स्तरफ्रूट खाया और वापिस अपने घर को आने लगे। हम बच्चे थे और हम खो गए। बचपन में गुमशुदा हो जाने का खौफ क्या होता है ये एक गुम शुदा बच्चा ही समझता है। हमने कई रास्ते अपनाए लेकिन घर पहुंचने की जगह घर से दूर होते गए। उस दौर में ना ही मोबाइल थे ना ही पब्लिक फोन का उतना चलन था। हम थकहारकर सड़क किनारे बैठ गए और रोने लगे। हमें अपने घर का पता नाम से नहीं पता था। हम बस इतना बताते रहें कि हमारे घर के सामने लीची का एक बहुत बड़ा बागान है, घर के दूसरी तरफ मियां टोली है और सनपीटल (सेंट पीटर्स) स्कूल भी नजदीक है। यह जानकारी हमें घर पहुंचाने के लिए अपर्याप थी। किसी ने पिता का नाम पूछा। हमने झट से बताया। किसी ने पूछा कि पिताजी क्या करते हैं “हमने बताया पुलिस हैं। तब सबको समझ आया हम लोग सिपाही जी के लड़के हैं। हमें उनमें से किसी एक ने घर पहुंचा दिया। हम बहुत खुश थे। हमें उस दिन लगा था कि शायद हम वापस कभी घर नहीं पहुंच पाएंगे लेकिन हम घर पहुंचे। घर मे सब परेशान थे। पूरे मोहल्ले में खबर फैल गयी थी कि हम दोनों खो गए हैं। ये वो दौर था जब बिहार में किडनैपिंग अपने चरम पर था। पर हम किडनैप नहीं हुए थे हम बस अपने बचपन को एक्सप्लोर करने के चक्कर में भटक गए थे। उस दिन हमें इस बात का महत्व पता चला कि छोटे बच्चों को सबसे पहले मां-बाप का नाम क्यों याद करवाया जाता है।
उस दिन पहली बार किसी और के स्कूल जाकर मन में अपने स्कूल जाने की बात उठी थी। यूँ मैं अव्वल दर्जे का आवारा और शैतानी करने वाला बच्चा था और मेरी हरकतों से जरा सा भी नहीं लगता था कि मैं पढ़ाई लिखाई में थोड़ी सी भी रुचि रखूंगा। उस दिन मुझे स्कूल जाने में एक आकर्षण दिखा था। मैनें सोचा था कि मैं रोज स्कूल जाऊंगा और स्कूल के बाहर के दुकान से तरह तरह के खाने वाले चीजें खरीदूंगा। मैंने अक्सर देखा था कि मेरे अगल बगल स्कूल जाने वाले बच्चों को रोजाना स्कूल जाने से पहले खर्च के लिए पैसे मिलते थे। बस देखा देखी मेरा भी एक नर्सरी स्कूल में दाखिला हो गया था। मैं बच्चों की उन दुर्लभ प्रजातियों में से था जो स्कूल के पहले दिन काफी उत्साहित हुआ करते हैं। पहला दिन स्कूल में 5 घण्टे बिताने के बाद मुझे लगा स्कूल जाने का फैसला बहुत गलत था। उस दौर में प्ले स्कूल का कांसेप्ट ज्यादा चलन में नही था। मेरा एडमिशन नर्सरी क्लास में हुआ था। और यहां पढ़ाई आज के प्ले स्कूल्स की तरह इंटरैक्टिव और फन बेस्ड लर्निंग जैसा नहीं था। और तो और यहां जो मेरी मिस थी देखने मे तो बहुत विनम्र लगती थी लेकिन एक नंबर की निष्ठुर थी। मिस की निष्ठुरता और घर से दूरी ने मुझे एक दिन में अहसास दिला दिया कि स्कूल जाना कितना कठिन और चुनौतीपूर्ण कार्य है।
उस दिन के बाद से मेरे जीवन मे स्कूल न जाने के बहाने बनाने सोचने वाला अध्याय शुरू हो गया। मैं रोज सुबह उठकर स्कूल न जाने के बहाने बनाता और रोज सुबह पहले तो मुझे कई तरह के प्रलोभन देकर स्कूल जाने के लिए मनाया जाता फिर मेरे भाई मुझे जबरदस्ती स्कूल ले जाते। मैं रोते रोते स्कूल के बस्ते से ज्यादा भारी टिफिन लिए स्कूल पहुंचता। उस समय आज की तरह ऐसा नहीं था कि शिक्षक बच्चों पर हाथ उठाने से डरते या झिझकते थे। आलम यह था कि खुद घरवाले शिक्षकों को यह कहते जाते कि “सर अगर बदमाशी कीजिये तो वहीं सूत दीजियेगा”। घरवालों के सामने तो शिक्षक मुस्कुराते हुए कहते कि “अरे अभी तो ये बच्चा है इसको क्या मारेंगे।” लेकिन क्लास में अगर सुलेख लिखने में गलती हो जाती तो दोनों अंगुलियों के बीच पेंसिल दबा के अपने आप को नाज़ी समझते थे।
हमारे दौर वैसा नहीं था जब बच्चे स्कूल से मार खा कर आते थे तो घर में माता-पिता परेशान हो जाते. ये आम बात थी. समाज ने शिक्षकों के बारे में कहीं जाने वाली इस बात को की की शिक्षक एक कुम्हार होता है जो मिट्टी के बर्तन सरीखे विद्यार्थियों को सही आकर में लाने के लिए उन्हें थोड़ा बहुत पीट भी देता है. उस दौर में ऐसा था भी. 2-3 शिक्षकों के अलावा बाकी सारे शिक्षक अच्छे थे. चूँकि मैं एक बहुत ही उदंड बच्चा था तो पिटता बहुत था. ऐसा कोई दिन नहीं होता की जब स्कूल में मुझे सजा नहीं मिलती. कभी होमवर्क न बनाने की सजा, कभी शिक्षक का चश्मा तोड़ देने के लिए सजा, कभी लड़कियों को बीच क्लास में पीट देने की सजा. इत्यादि. वैसे मैं कोई बुली करने वाला छात्र नहीं था लेकिन बचपन से ही स्कूल में एक बात समझ में आ गयी थी की ये दुनिया वाकई में बहुत बुरी है. अगर आप अपने लिए नहीं लड़ोगे तो आपके लिए कोई नहीं लड़ेगा.
स्कूल के पहले दिन जब मैं उस स्कूल में नया नया आया था. वो अमीर बच्चों का स्कूल था और मैं एकलौता ऐसा लड़का था जो निम्न मध्यम वर्गीय परिवार से आया था बिना किसी चैरिटी वाले कोटे से. मुझे पहले दिन किसी ने बैठने को जगह नहीं दी. मैं पहली बेंच पर गया तो एक मोटे से गोरे से लड़के ने कहा यहाँ ‘राजीव, बैठता है. अगली सीट पर किसी ने कहा यहाँ मनोज बैठता है. इसी तरह मैं कई बेंचेज पर अपना बैग रखने गया लेकिन मुझे कहीं भी जगह नहीं मिली. अंत में सबसे पीछे एक खाली सा बेंच था जिसपर जमी धुल देखकर मुझे यह अंदाजा लगा की यहाँ शायद कोई नहीं बैठता होगा. मैनें अपना बैग वहां रख दिया. मैं आदर से काफी सहम सा गया था और शायद रो देने वाला था लेकिन उस आखिरी बेच को देखकर मेरी उम्मीद जगी थी और मैंने वहां अपना बैग रख दिया था. बैग रखने के कुछ देर बाद एक लड़की आई और उसने चिल्लाते हुए आवाज में कहाँ कि वहां किस से पूछ कर बैठे कहीं और बैठ जाओ. वहां हम सब अपना लंच रखते हैं. उस लड़की की चिल्लाती आवाज और आस पास के बच्चों की भीड़. इन सब से मैं बहुत डर गया था. मेरी उम्र बहुत छोटी थी लेकिन मुझे लग रहा था की मेरे साथ अत्याचार हो रहा है. और यह गलत है. मैं अपने मोहल्ले के बच्चों के बीच हीरो था. और मुझे लगा की आज स्कूल का यह पहला दिन ही तय करेगा की मैं आगे के दिनों में हीरो की तरह रहूंगा या फिर फिल्म के किसी उपेक्षित साइड रोल वाले किरदार की तरह. वैसे मैं लड़कियों पर हाथ नहीं उठाता. लेकिन एकता मेरे जीवन की पहली लड़की थी जिसपर मैंने हाथ उठाया. मेरा एक थप्पड़ और एकता का रौद्र रूप एकाएक निरुपमा रॉय जैसा हो गया. वो दहाड़े मारकर रोने लगी. उसके मुंह से शायद खून भी आ गया था. पहले दिन ही मुझे प्रिंसिपल ऑफिस जाना पड़ा. कम्प्लेन हुई. उस लड़की के माता पिता आये. उन्होंने मुझे राक्षस कहा. लेकिन मैं चुप रहा. बात मेरे पहले दिन ही स्कूल से निकाल दिए जाने की हो रही थी लेकिन एकता जैसी लड़की थी उस लिहाज से सभी को इस बात का अंदाजा था की एकता ने भी कुछ ऐसा किया होगा जिस से यह नौबत आई. कुछ दिनों बाद मामला रफा दफा हो गया. उस दिन के बाद मुझे फिर कभी किसी ने मजाक में भी कुछ बोलने की हिम्मत नहीं कि. बाद में मैं भी उन लोगों के बीच काफी अच्छे से घुल मिल गया.
ये शायद वो दौर था जब इंग्लैंड में 1999 का क्रिकेट वर्ल्ड कप खेला जाने वाला था. उस समय ब्रितानिया कंपनी ने एक ऑफर निकाला था की ब्रिटानिया बिस्कुट खरीदो रैपर पर दिए गए रन को इकठ्ठा करो और इंग्लैंड जाओ. मेरा सपना उस समय इंग्लैंड जाने का नहीं था मैं बस चाहता था की मुझे 100 रन इकठ्ठा कर कई सारे क्रिकेट बुकलेट जमा करूँ. मुझे बचपन से ही चीजें जमा करने का शौक था. मैं माचिस के अलग अलग रैपर जमा करता था. उस समय सबसे पोपुलर माचिस चीफ हुआ करती थी जिसमें एक रेड इंडियन की तस्वीर बनी होती थी. उसके अलावा मेरे गाँव के तरफ किसान नामक माचिस चलती थी. मैं इन दो माचिसों के अलावा जितने भी अलग नाम के माचिस मिलते उनके रैपर इकठ्ठा करता. बिग बबूल के अन्दर मिलने वाले कॉमिक स्ट्रिप को इकठ्ठा करता, अलग अलग रंग के पत्थर, पक्षियों के पंख, पत्ते, तितलियों के पंख. इन चीजों का मेरे पास अपना एक संग्रहालय था जो मैं एक डिब्बे में अपने सीढ़ी वाले रूम में छिपाकर रखता था. इसी डिब्बे में मैं चाहता था की ढेर सारे क्रिकेट बुकलेट रखूं इसलिए मैं ब्रितानिया बिस्किट के रैपर भी इकठ्ठा करता था. उस समय घर में कभी कभी ही कोई महंगा बिस्कुट आता था. टाइगर बिस्कुट जो उस समय तीन रुपये में आती थी उसमें सिर्फ 5 रन मिलते थे. मिल्क बिकिस में 10 रन. ब्रितानिया के महंगे बिस्कुट के रैपर में ज्यादा अंक मिलते थे ऐसे रैपर मेरे सहयोगी लाकर देते थे.
बचपन में मेरे सहयोगी हमारे पुलिस कालोनी के मेस में काम करने वाले कूक के 2 बेटे हुआ करते थे. मुझे बचपन में इस बात का अंदाजा दिला दिया गया था की ये गरीब हैं और बदमाश बच्चे हैं इनके साथ खेलना सही नहीं है. लेकिन मैं इन्हीं के साथ खेला करता था क्यूंकि मैं भी बदमाश बच्चों में से एक था और खूब गालियाँ भी देता था. यही मेरे सहयोगी मेरे लिए बिस्किट के रैपर इकठ्ठा करते थे. मैंने कई बार सौ रन इकठ्ठा किये लेकिन मुझे कभी भी कुछ अच्छा इनाम नहीं मिला. मैं आगे और प्रयास करता लेकिन एक दिन मेरे मोहल्ले की बर्ड हॉक आंटी ने मुझे कूड़े के ढेर से बिस्किट का रैपर निकलते देख लिया और मेरी मां से शिकायत कर दी. दुनिया के हर मोहल्ले में एक आंटी ऐसी होती हैं जिनका काम बस शिकायत करना होता है. यह आंटी भी ऐसी ही थी. इनका मुख्य काम अपनी बालकनी में बैठकर बस आसपास देखना और सुनना होता है कि क्या चल रहा. ऐसी ही आंटियों के पास किसी के किसी के साथ अफेयर होने की, या किसका लड़का सिगरेट पी रहा या किसका लड़का या लड़की मैट्रिक में फेल या पास हो रहा जैसी ख़बरें सबसे पहले पहुँचती थी. इन आंटी के वजह से मेरा रन इकठ्ठा करने वाला अभियान रुक गया वरना मुझे उम्मीद थी की मैं इंग्लैंड जाकर अजय जडेजा और अजहरुद्दीन को बैटिंग करते देखूंगा. मुझे उस समय सबसे बेहतरीन खिलाड़ी अजय जडेजा और मोहम्मद अजहरुदीन बहुत पसंद थे. सचिन तेंदुलकर मुझे उस समय उतने पसंद नहीं थे.
मैं क्रिकेट का एक अछा खिलाड़ी तो नहीं था लेकिन उस दौर में मुझे क्रिकेट काफी पसंद था. ज्यादातर क्रिकेट खिलाड़ी. क्रिकेट सम्राट जैसे पत्रिकाओं की वजह से मुझे काफी खिलाड़ियों के नाम पता था. इंडिया के खिलाडियों के अलावा विदेशी खिलाडियों के भी. विदेशी खिलाडियों में मुझे हमेशा से एंडी फ्लावर पसंद था . क्यूंकि मुझे उस समय लगता की ज़िम्बाब्वे सबसे कमजोर टीम है और इस टीम को आगे बस एंडी फ्लावर ही बढ़ा सकता है. मुझे बचपन से ही ज़िम्बाब्वे, केन्या जैसी टीम्स के प्रति काफी सहानूभूति रहती थी. आगे जाकर इसी कारण मेरे पसंदीदा बल्लेबाजों में कनाडा के जॉन डेविडसन का नाम आया. जब २००३ के विश्व कप में जॉन ने सबसे तेज शतक लगाया था तब भारत में शायद ही मुझसे ज्यादा कोई खुश व्यक्ति होगा. ऐसी ही ख़ुशी मुझे बहुत दिनों बाद 2015 के वर्ल्ड कप में मिली थी जब आयरिश बल्लेबाज केविन ओ ब्रायन ने शतक मारकर इंग्लैंड के खिलाफ 300+ के स्कोर को चेज करते हुए जीत दिलाई थी.
बचपन में क्रिकेट के अलावा जो सबसे ज्यादा पसंदीदा चीज थी वो थी किताबें. किताबें, कोर्स की किताबें नहीं. पत्रिकाएं, कहानियों की किताबें. बालहंस, नंदन, चम्पक, चन्दामामा, राज कॉमिक्स, डायमंड कॉमिक्स. क्लास 2-3 से ही मैं किताबें पढने लगा था. शायद यही वजह थी की आगे बहुत दूर जाकर मुझे भविष्य में लिखने का शौक हुआ. बचपन में घर में हर हफ्ते दो हफ्ते राज कोमिस के नए कॉमिक्स के सेट आते. मेरे बड़े भैया और भी कई तरह की मैगजीन मंगाते थे जो अंग्रेजी में होते थे जैसे रीडर्स डाइजेस्ट, आउटलुक, इंडिया टुडे, लाइफ. मैं इन मैगजींस के बस चित्र देखता था. लेकिन चित्र देख देख कर भी काफी कुछ समझ आने लगता था. हिंदी में भी कुछ पत्रिकाएं आती थी. जैसे कादम्बिनी, हंस, वागर्थ, मनोरमा, सरिता इत्यादि. मनोरमा और सरिता हमेशा जाड़े के मौसम में आती थी घर पर. क्यूंकि शायद इसी समय उनमें स्वेटर के डिजाईन आते थे. यह पत्रिकाएं सिर्फ माँ के स्वेटर बुनने के शौक की वजह से आती थी लेकिन मैं इन किताबों को भी पढता था. और आने वाले समय में लड़कियों के विषय में कई सारी अनोखी और तिलिस्मी बातें मुझें इन्हीं किताबों के माध्यम से पता चलीं. हालांकि, इन किताबों में रूचि बाद में ज्यादा बढ़ी लेकिन शुरुआती दौर में चम्पक, नन्हे सम्राट, बालहंस, नंदन जैसी पत्रिकाओं को पढ़कर बीता. आजकल टीवी पर एक कार्टून आता है चाचा भतीजा. यह कार्टून नन्हे सम्राट में छपने वाले एक कोमिक स्ट्रिप जूनियर जेम्स बांड पर ही आधारित है. नन्हे सम्राट में ही छपने वाले कहानी सीरीज शहजादा सलीम के माध्यम से बचपन से ही तिलिस्म और फंतासी की दुनिया वाली कहानियों से सामना हुआ.
आज भी जब कभी लिखने और पढने के बारे में सोचता हूँ तो बचपन में पढ़ी इन्हीं किताबों पर ध्यान जाता है. अब लगता है की शायद अगर बचपन में यह सब ना पढ़ा होता तो व्यक्तित्व काफी अधूरा होता. कई चीजें नहीं समझ पाता. इसलिए मैं इस बात पर बहुत पर यकीन करता हूँ की हम सभी को आने वाले समय में जब हम माता-पिता बनेंगे तो अपने बच्चों को किताबें पढने के लिए जरुर प्रेरित करेंगे. हाँ, हमारे समय यह बहुत ही कठिन होगा लेकिन कोशिश तो की जा सकती है. किताबें, कहानियां हमें घर बैठें एक नयी दुनिया में ले जाती हैं. फिल्मों में शायद वो बात नहीं होती. फ़िल्में भी कहानियों का रूप होती हैं लेकिन मेरा निजी ख्याल यह है कि मुझे फिल्मेमों में कहानियां देखने से किताबों में कहानियां पढ़ना ज्यादा अच्छा लगा. जब भी किताब में लिखा होता की भोलू शरारती बच्चा है तो मैं अपने दिमाग में खुद से भोलू का चित्र बनाने लगता. मैं अपने आस पास के बच्चों में भोलू को ढूंढता. यह अलग बात है की बाद में मुझे पता चलता कि अरे ये भोलू तो मैं ही हूँ.
क्रमशः