मछली

“हम सब पानी में गुम हैं?”
“नहीं, पानी हम सब में गुम है।”
“हम दोनों मछली हैं क्या”?
“हां”।
“पानी तो हममें गुम है! हमें हम में जाना होगा क्या या मर जाना होगा क्या?”
“अब हम मछली से मेढ़क हो गए। हम नहीं मरेंगे”।

“तिकोने आसमान से तुमने क्या मांगा?”
“समोसे। टेढ़े आसमान से तुमने क्या मांगा?
“जलेबी।”
“तुम अचानक से बचपन में क्यों कूदी?”
“मैं अकेले थोड़े कूदी। तुम भी कूदे। हम दोनों पूल से अचानक क्यों कूदे?”
“हम मछली थें।”
“हम मछली थे तो पानी में डूबे क्यों?”
“हम पानी छूकर पत्थर बन गए।”
“वो पानी छूकर देवता कैसे बन गए?”
“चुप। खामोश हो जाओ। नदी खामोश है।”

“नदी जब बोलेगी तो हम बोलेंगे क्या?
मुंह पर चांद रख रो लेंगे क्या?
अपने आंसू से सबकुछ धो लेंगे क्या?
या आंखे एकदूजे की नोच साथ सो लेंगे क्या?
तुम कुछ कहते क्यों नहीं मौन हो क्या?
इतने अलग क्यों लग रहे तुम भी ‘कौन’ हो क्या?”

‘उसे’

25 जुलाई 2020 को सुबह-सुबह जो मैंने पहला शब्द लिखा था वो ‘उसे’ था. ‘उसे’, यह शब्द लिखने के बाद मैनें आगे कम से कम हज़ार शब्द और लिखें. ‘उसे’ शब्द से शुरू हुई मेरे लिखने की यात्रा में मैंने सुदूर के कई आकाशगंगाओं में झाँक कर देखा. किसी हाईवे के किनारे बने एक ढाबे से एक गर्म चाय उसके हाथों में रखते हुए केदारनाथ की एक कविता की पंक्ति चुराने की नाकाम कोशिश की. किसी कैफे की एक मेज पर बैठा इन्तजार शब्द पर मैनें नर्सरी राइम लिखने की कोशिश की. अगले जन्म शायद में कोई बच्चा बनूँ तो खुद की लिखी यह नर्सरी राइम पढ़कर बहुत जल्दी ही इन्तजार शब्द से प्रेम या नफरत करना सीख लूं. मैंने एक जगह उसके साथ बनारस के किसी घाट किनारे नाव पर बैठने की बात भी लिखी. मुझे डूबने से डर लगता है शायद इसलिए मैंने यह पंक्ति बाद में मिटा दी. मैं अच्छा तैराक हूँ लेकिन शायद जलपरियों को या तो बहुत प्यारा हूँ या फिर नापसंद.

लिखने के लिए मुझसे शायद कहीं का टिकट नहीं खरीदना होता इसलिए उसे मैं अपने सबसे पसंदीदा जगह ले गया. शकुरा के गुलाबी जंगल के बीचो बीच साके का तीसरा जाम पीने के बाद मैनें उस से कहा है कि “मैं उस से प्रेम करता हूँ”, मैंने उसे बताने की कोशिश कि है “मैं परफेक्ट नहीं हूँ, मैं संतुलित नहीं हूँ, मैं ना ही काला हूँ ना सफ़ेद पर मैं ग्रे भी नहीं हूँ. यहाँ इस देश में वाबी साबी नामक एक कला है. इस कला में लोग टेढ़ी मेढ़ी, आढी-तिरछी या टूटी फूटी चीजों को भी एक खूबसूरत कलाकृति में तब्दील कर देते हैं. जैसे अगर मैं इस गिलास को जमीन पर फेंककर तोड़ दूं तो शायद वो इस गिलास के टूटने की आकृति में भी एक कला ढूंढ ले. मैनें तुम्हारी आँखों में देखा है, तुम्हारी आँखों में एक साँचा है जो दुनिया की टेढ़ी से टेढ़ी, कुरूप से कुरूप चीजों को खूबसूरत बना सकता है. मैं चाहता हूँ की तुम मुझे एक बार अपनी इन्हीं आँखों से थोड़ी देर देख लो. मैं सालो तक किसी जापानी संग्रहालय में बुत बनकर जीवन गुजारने को तैयार हूँ.”

यह लिखने के बाद मैं काफी देर तक रुका. शायद घंटों तक. मैं जहाँ रहता हूँ या जहाँ से बैठकर लिखता हूँ वहां नीम का पेड़ है. शाकुरा का पेड़ नहीं. मैनें लिखना छोड़कर काफी देर तक इस नीम के पेड़ को शाकुर के पेड़ में तब्दील होने की प्रार्थनाएं की. पर शायद मेरी प्रार्थना को किसी भूखी गौरैया ने दाना समझकर चुग लिया. मुझे गौरयों से काफी प्रेम है इसलिए मैं ज्यादा समय प्रार्थनाओं में बिताता हूँ. या शायद मुझे भूख से बहुत डर लगता है इसलिए भी मैं शायद प्रार्थनाएं करता हूँ. आकाशगंगाओं की सैर मैं इसलिए नहीं करता की मुझे कोई नया ग्रह ढूंढना है या कोई कोई नया तत्व ढूंढना है. इन आकाशगंगाओं में कहीं ना कहीं एक शाकुरा का पेड़ होगा जहाँ मेरी प्रार्थनाएं पेड़ों पर लगती होंगी और गुलाबी रंग की गौरैयायें इन्हें चुगकर अपने पेट में बसने वाले भूख के देवता तक पहुंचा देती होंगी.

मुझे अंदाजा भी नहीं है की मैनें ऐसा सोचते वक्त न जाने सैंकड़ों बार प्रेम शब्द लिखा है. लेकिन मेरे बगल में अबतक नीम का पेड़ ही है. इसलिए शायद मैंने अपना लिखा मिटाना शुरू कर दिया है. मैं अपना लिखा मिटाते समय कई दफा प्रेम शब्द पर रुका हूँ और फिर नीम के पेड़ को देखकर मैनें उसे मिटा दिया है.

अपने लिखे से ढेर सारा प्रेम मिटाने के बाद अब बस मेरे स्क्रीन पर एक ही शब्द बचा है. ‘उसे’. मैं थोड़ी देर बाद शायद इस शब्द को प्रिंट कर के एक फोटो फ्रेम में डाल दूंगा और अपने कमरे की दीवार पर टांग दूंगा. मुझे पता है कोई भी यह फोटो फ्रेम देखेगा तो शायद उन्हें कुछ भी समझ में न आये. लेकिन यह शब्द यह फोटो फ्रेम सिर्फ मेरे लिए है. मेरी यात्राओं के लिए. मेरे लेखन के लिए. शाकुरा के तमाम पेड़ों के लिए. भूख के लिए. उसके लिए. और शायद मेरी अनसुनी प्रार्थनाओं के लिए.

छोटी चीजों का देवता

जब भी मुझे लगता है कि अब मुझसे बात करने वाला दुनिया में कोई भी इंसान नहीं बचा है तब मैं पहले कुछ घंटे खामोशी से अपनी बालकनी में खड़े होकर रात के खुले स्याह आसमान में तारे गिनने लगता हूँ. उसके बाद मैं अपने कमरे में पड़ी चीजों से बातें करने लगता हूँ.

मुझे तारे गिनना बहुत पसंद है. इतना पसंद की जब भी किसी लड़की ने मुझसे मेरे बारे में जानने की कोशिश में यह पूछा कि तुम्हें सबसे ज्यादा क्या पसंद है तो मैंने उसे यही जवाब दिया “मुझे तारे गिनना पसंद है”.

“तारे गिनना! भला यह भी किसी को इतना पसंद हो सकता है क्या? मैं भी तारे गिनती हूँ लेकिन कोई मेरी पसंद पूछता है तो मैं यह नहीं बताती की मुझे तारे गिनना पसंद है. अच्छा ये बताओ तुम्हें तारे गिनना क्यूँ इतना ज्यादा पसंद है?” ऐसा पहली बार हुआ था की मुझसे किसी लड़की ने यह पूछा हो कि मुझे तारे गिनना क्यूँ पसंद है? वो लड़की काफी सुन्दर थी और उसने जब यह सवाल पूछा तो और सुन्दर हो गयी. मैंने उसे जवाब देने से पहले अपने डायरी में एक जगह लिखा कि इस तरह के सवाल पूछने वाली लड़कियां काफी सुन्दर होती हैं.

“मुझे तारे गिनना इसलिए पसंद है क्यूंकि मैं गिनती में कमजोर हूँ. मैं गणित में हमेशा से कमजोर रहा. मैं जब एक बार पढ़ रहा था तब मुझे अचानक से किसी ने पूछ दिया की 76 का 29 परसेंट कितना होता है. और मैं इस सवाल से इतना डर गया था कि बाहर भाग गया और तारे गिनने लगा. मैं तारे गिनते हुए भी कई बार गिनती भूलता था लेकिन तारों ने मुझसे कभी सवाल नहीं पूछें. तारों ने मुझे हर बार मुझे गिनती गलत होने पर मौके दिए. मुझे अच्छा लगता है जब मेरी गलतियों को हंस कर टाला जाता है और मुझे और मौके दिए जाते हैं. एक मशहूर गीतकार ने अपने एक गीत में एक बात लिखी थी कि गिन गिन तारे मैंने ऊँगली जलाई है. मेरी अंगुलियाँ कभी नहीं जली. मैं एक बार तारे गिनते-गिनते आसमान में बहुत दूर निकल गया था, तब एक तारे ने मेरी 3 साल की अंगुली को छुआ था और मुझे वापिस घर भेज दिया था. मुझे तारे गिनना इसलिए भी पसंद ही क्यूंकि मैं हर बार इस तारे के स्पर्श को महसूस करना चाहता हूँ और एक नादान और मासूम सा बच्चा बनना चाहता हूँ. ऐसी कई और कारण हैं जिनकी वजह से मुझे तारे गिनना पसंद हैं लेकिन ये किसी तारे द्वारा छू लिए जाने का कारण बाकी कारणों के सामने सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण है.” मैनें एक सांस में उस लड़की को यह बात बताई. मैं उसे और भी कारण बताता लेकिन शायद आँखों में पानी आ जाने की वजह से मैं अंधा हो गया था इसलिए मैंने अपनी बात खत्म कर दी थी. मेरे साथ एक मसला है कि जब भी मेरी आँखों में ढेर सारा पानी आने लगता है तब मैं कुछ देर लिए अँधा हो जाता हूँ और कई बार तो इसी क्षणिक अंधेपन की वजह से मैं गिर भी जाता हूँ. कई बार मैं इसी अंधेपन की वजह से गिरा था लेकिन चूँकि मेरे मुंह से शराब की बू आ रही थी तो लोगो ने कहा ये पी के गिर जाता है.

लड़की को जब पता चला कि मुझे तारे गिनना इतना क्यूँ पसंद है तो वो खामोश हो गयी थी. मैं उससे फोन पर बात कर रहा था और मैंने फोन पर उसकी ख़ामोशी सुनी थी. वो शायद मुस्कुरा रही थी या शायद तारे गिन रही थी. वो काफी देर खामोश रही और उसके बाद उसने कहा मैं सोने जा रही हूँ. मैं उसे मुस्कुराते हुए उसे सोते देखने की कप्लना कर रहा था. मेरी कल्पना में वो दुनिया की सबसे खूबसूरत लड़की थी. अगर आवारा लेखकों के भूत, लड़कियों के कमरों में खिड़की पर बैठ उन्हें सोता हुआ देखते होंगे तो उन्हें इस लड़की को देखकर इस बात का बहुत मलाल होगा कि उन्होंने जीते जी कभी सोती हुई परी की कहानियां क्यूँ नहीं लिखी.

एक दिन जब मैं ऐसे ही इस लड़की के सो जाने के बाद अपने बालकनी में अकेला बैठा तारे गिन रहा था तब अचानक से 26 तारे गिनने के बाद मैं चौंक सा गया था. मुझे 26 से याद आया की आज मेरी एक पूर्व प्रेमिका 26 साल की हो गयी होगी. मैनें एक दफा तारों से गुजारिश की मेरी तरह तुम भी थोड़ा मेरी इस पूर्व प्रेमिका के लिए टूट जाओ ताकि मैं इसके लिए एक खूबसूरत दुआ मांग लूं. लेकिन कोई तारा नहीं टूटा और मैंने खीज में बिना किसी टूटते तारे के, उसके लिए एक दुआ मांगी की वो जहाँ रहें खुश रहे. पूर्व प्रेमिकाओं के लिए मांगी जाने वाली यह सबसे प्यारी और सामान्य दुआ है. मेरे ख्याल से पूर्व प्रेमिकाओं को नागिन बताने वाले लड़कों को भी यही दुआ मांगनी चाहिए.

मैं एक खीज में था इसलिए मुझे लगा की फिर से वो तारा आएगा जो मेरी 3 साल की अँगुलियों को छूकर मुझे पुराने दिनों के आसमान में भटकने से बचा लेगा. हालांकि ऐसा कोई तारा नहीं आया और मैं इतना खीज गया की मैं खुद ही अपने कमरे में चला आया. कमरे में आने के बाद मुझे लगा की अब मेरे पास अपने कमरे की चीजों से बात करने के अलावा और कोई काम नहीं है. लिहाजा, मैं अपनी मेज के सामने वाली कुर्सी पर बैठ गया और मेज से बातें करने लगा. एक बार के लिए कोई भी यह सोच सकता है कि भला मेज जैसी निर्जीव चीजें बात कर सकती हैं. मैं भी नहीं मानता था कि मेरी बात मेज जैसी चीजों से शुरू होगी. एक दिन मैंने अखबार में पढ़ा कि एक ६ महीने की बच्ची के साथ रेप हो गया तो मैं स्तब्ध सा हो गया था. उस दिन के बाद से आये दिन मैंने ऐसी कई ख़बरें पढ़ी. जैसे जैसे अख़बारों में ऐसे ख़बरों की संख्या बढ़ने लगी मुझे लगने लगा की मैं मेज से बात कर सकता हूँ. क्यों, जब दुनिया में ऐसी अकल्पनीय घटनाएँ घट सकती हैं तो मेज जैसी चीजें बात क्यूँ नहीं कर सकती. शायद मेरी मेज ने भी यह खबर पढ़ ली थी इसलिए एक दिन उसने मुझे हाय राधे श्याम कह दिया था. तबसे मैं इस बात पर यकीन करने लगा की इस दुनिया में बहुत शैतान हैं और मेज जैसी चीजों से भी बात की जा सकती है.

मेरी मेज कि स्थिति भी मेरी उम्र के बाकी बेपरवाह और लिखने पढने वाले लोगों जैसी थी. मेज पर कुछ आधी पढ़ी मोटी-मोटी किताबें थी जिन्हें मैं पिछले 3 साल से पढने की कोशिश कर रहा था. मेज के बीचो बीच एक डेस्कटॉप था जिसके बगल में बचे बाकी के जगह को अपने लैपटॉप के लिए घोषित कर चूका था. मेज के बायीं ओर पुराने दिनों का एक निशान था. कभी उस जगह पर मैं एक एश ट्रे रखा करता था. तब मैं काफी सिगरेट पीता था. वो ऐशट्रे अब भी मैंने संभाल कर रखी हुई है. मैंने जानबुझकर अबतक मेज से ऐशट्रे के निशान को नहीं मिटाया वरना जिस तरह मैं कभी कभी अपने दिल में जमे पुराने दिनों के धुल को मिटने के लिए शराब का इस्तेमाल करता था वैसे ही मैं किसी ब्लीचिंग एजेंट से उस निशान को मिटा देता. कई बार हम चाहते हुए भी पुराने निशान मिटाना चाहते हैं. पुराने निशान कभी भी समय यात्रा के लिए एक पोर्टल बन सकते हैं. शायद यही वजह थी की मैंने ऐशट्रे का निशान कभी मिटाने की कोशिश नहीं की. ऐसे भी मुझे निर्जीव चीजों में ऐशट्रे बहुत पसंद थी. एक ऐशट्रे का किरदार मुझे हमेशा से एक लेखक की तरह लगता था. उस लेखक की तरह जिसके पास कई हज़ार कहानियां थी लेकिन वो कभी इन कहानियों को लिखता नहीं था. वो बस अपने अन्दर कई सारी कहानियों को जज्ब करता है. ऐशट्रे में अपनी आखिरी यात्रा को रूप देने वाली न जाने कई बुझी-अधबुझी सिगरेट पर होठों के छाप  के रूप में न जाने कितनी कहानियां होती होंगी जो ऐशट्रे में जमी राख में हजारों सालों के लिए दफन हो जाती होंगी. ऐशट्रे मुझे इसलिए भी पसंद है क्यूंकि इसमें राख जमा होती है. और राख से सच्ची चीज इस दुनिया में शायद कुछ नहीं. बनारस के घाटों पर जलने वाली लाशों के इर्द गिर्द खड़े लोगों को राख एक बहुत ही डरावना पर कटु सत्य बताती है कि कुछ भी स्थायी नहीं है. शायद यही वजह है कि मैंने कई बार कई लड़कियों को बस इसलिए चूमा था क्यूंकि मुझे लगता था की ये लड़कियां जादूगरनी हैं और ये मुझसे उब कर एक दिन मुझे जादू से एशट्रे बना देंगी.

मेरी मेज पर एक जगह डमी कुत्ता है. मैं अपनी मेज पर कुछ और भी रख सकता था लेकिन मुझे यह कुत्ता ही पसंद आया. कभी कभार चीजें इसलिए भी पसंद होती हैं क्यूंकि चीजों के साथ कुछ कहानियां कुछ यादें जुडी होती हैं. इस कुत्ते के साथ भी एक कहानी जुडी थी. मैं सालों बाद अपनी एक प्रेमिका से एक बड़े शहर का बाज़ार घुमने गया था तब उसने मेरी पसंद पूछी थी. “आप बताओ ना आप क्या लोगे? यहाँ कितने प्यारे प्यारे आर्ट पीस हैं.” मुझे उस दूकान से कुछ भी नहीं लेना था लेकिन उसके बहुत जिद करने पर मैनें कहा कि मुझे यह कुता पसंद है. वो मुझे कुछ देर के लिए घूर रही थी फिर उसने वो कुत्ता एक गिफ्ट रैपर में पैक करवा कर ले लिया.

मैं अब भी जब कभी अपनी मेज पर इस कुत्ते को देखता हूँ  तो मुझे ये कहानी याद नहीं आती. इस कुत्ते को देखकर मुझे अपने पुराने शहर का एक लड़का याद आता. वो लड़का एक लड़की से सालों से एकतरफ़ा मुहब्बत करता था. वो लड़की सुबह सुबह एक कोचिंग क्लास जाती थी. यह लड़का कहीं नहीं जाता था लेकिन सुबह-सुबह वो अपनी साइकिल से इस लकड़ी का तबतक पीछा करता था जबतक लड़की अपने कोचिंग नहीं पहुँच जाती थी. वो न लड़की से कभी कुछ कहता ना ही कोई चिट्ठी देता वो बस कोचिंग जाते समय उसका पीछा करता. ऐसा नहीं था की लड़की को इस बात का अंदाजा नहीं था की एक लड़का उसका रोजाना पीछा करता है. लड़की को भी यह बात पता थी और शायद उसे भी लड़के का पीछा करना पसंद था. तकरीबन एक साल हो गए थे. लड़की के कोचिंग का आखिरी दिन था. अगले दिन से वो उस रास्ते से नहीं आने वाली थी. लड़का रोज की तरह ही लड़की के पीछे पीछे साइकिल चला रहा था. उनदोनों को एकदुसरे का नाम भी पता नहीं था. लड़की उम्मीद कर रही थी की आज तो कम से कम लड़के को अपने दिल की बात बतानी चाहिए. पर लड़का इन सबसे अलग थलग साइकिल चलाने में मशगूल था जैसे उसके जीवन का एकमात्र लड़की को कोचिंग छोड़ना ही हो.

लड़की को जब लगा की लड़का कुछ नहीं बोलेगा तब वो अचानक से रुकी. लड़की को रुकते देख लड़के के साइकिल के ब्रेक भी अचानक से दब गए. लड़का इधर उधर देखने लगा जैसे वो बताना चाहता हो की वो रास्ता भटक गया है. लड़के को शायद उसकी इस हरक़त पर हंसी आई थी. लड़की तेजी से लड़के के करीब गयी और उसने सीधे कहा “एक साल से देख रही हूँ रोजाना तुम मेरा पीछा करते हो लेकिन कभी बात करने की कोशिश नहीं करते. तुम्हें पता है पहले तो मुझे तुम पर बहुत गुस्सा आता था लेकिन बाद में मुझे लगने लगा की महज तुम्हारे पीछे होने से मेरा रास्ता कितना सुरक्षित और प्यारा हो जाता है. शुरुआत में मुझे डर लगता था की कोई मेरा पीछा कर रहा लेकिन बाद में मुझे यही बात अच्छी लगने लगी की कोई मुझे अकेला नहीं होने दे रहा. मुझे न तुमसे प्यार हो गया है. मैं कल से इस रास्ते पर कभी नहीं आउंगी इसलिए मैनें सोचा मैं तुम्हें आज बता दूं. मेरा नाम नैना है. तुम्हारा नाम क्या है?

लड़के को कभी लगा नहीं था की उसके साथ ऐसा होगा. वो एकदम से घबरा गया. उसकी साँसे तेज होने लगी और उसके चेहरे पर पसीने की एक परत आस्तित्व में आने लगी. लड़के ने कभी यह बात सोची ही नहीं थी की उस दिन क्या होगा जब वो लड़की उसे पीछा करते देख लेगी या उस से बात कट करने आएगी. लड़के को लगता था की उसे लड़की को उसके कोचिंग तक छोड़ देना उसका कर्तव्य है. उसे बस अच्छा लगता था लड़की का पीछा करना. लड़के ने एकबारगी सोचा की वो लड़की को बता दे कि उसका नाम अभिराम है लेकिन उसके मुंह से शब्द ही नहीं फूटे. उसे लगा शायद दुनिया भर की क्रूर लड़कियों ने उसके गले में हाथ डाल  कर उसे बोलने से रोक दिया है. उसने बिना कुछ कहे अपनी साइकिल मोड़ी और पैडल  पर लात चलाते हुए घर चला गया. घर पहुँचते ही उसने फ्रीज से ठंडा पानी निकलकर पीया और अपने कमरे का दरवाजा बंद कर के हांफने लगा. उसे अपनी हालत कुत्तों जैसी लगी. उन कुत्तों जैसी लगी जो गाड़ियों के पीछे बेतहाशा भागते हैं और एक दिन जब गाडी रुक जाती है तब उन्हें समझ ही नहीं आता की वो क्या करें. लड़के ने दुबारा कभी उस लड़की से मिलने या बात करने की कोशिश नहीं की. वो कई दिनों तक अपने घर से बाहर नहीं निकला. कुछ दिनों बाद उसे पता चला की एक नयी लड़की उस रास्ते से उसी कोचिंग जाती है तो वो फिर उस लड़की का पीछा करने लगा.

मेरी मेज पर जहाँ ऐशट्रे का निशान है उसके ठीक पीछे एक स्टील का गिलास है. मुझे यह गिलास काफी पसंद है. मैं दूध, चाय, कॉफ़ी, पानी, जूस और कभी कभी शराब भी इसी गिलास से पीता हूँ. यह गिलास मेरे साथ कई सालों से साथ हैं. यह मेरा फेवरेट गिलास है. मेरे जो फेवरेट लोग थे जब वो मेरे बहुत ज्यादा फेवरेट हो गए थे तो वो चले गए थे. अभी भी ऐसा होता है की जैसे जैसे मैं किसी को पसंद करने लगता हूँ उनकी बातों में जाने की बातें झलकने लगती है. पर यह गिलास कभी नहीं गया. मुझे जब भी कभी गुस्सा आया मैंने अपना गुस्सा हमेशा इस गिलास को पटककर किया. गुस्से में मैनें कभी किसी को थप्पड़ नहीं मारा. मुझे जब भी कभी तेज गुस्सा आता तो यह गिलास न जाने कहाँ से मुझे दिख जाता और मैं इसे जमीन पर फेंककर अपना गुस्सा शांत कर लेता. मुझे कभी कभी लगता है की इस गिलास को पता है कि मुझे गुस्सा बहुत आता है इसलिए वो कभी मुझसे दूर नहीं जाता. शायद यह निर्जीव गिलास जिसे रोजाना मेरे होठ छूते हैं, मेरी भावनाओं को उन सजीव लोगों से से बेहतर समझता हैं जिन्हें मेरे होठ चूमा करते थे. मुझे नहीं पता था की गिलास में पानी या शराब के अलावा भावनाएं भी बहरी होती हैं.

मेरी मेज पर और ज्यादा सामान नहीं होता. हाँ पर मेंरे कमरे में मेज के अलावा एक आईना भी है. मुझे अपने कमरे की चीजों में सबसे ज्यादा तिलिस्मी यह आईना ही लगता हैं. इस आईने ने मुझे रोते हँसते, नाचते गाते, सजते सव्नारते, गाते गुनगुनाते हर हाल में देखा है. मुझे कभी कभी लगता है की यह आईना एक खिड़की है जिसके उस पार से मुझे वो लोग देखा करते हैं जो अब मुझे सामने आकर देखना नहीं चाहते या फिर कभी देखना ही नहीं चाहते. एक मर चुके लेखक कि किताब में मैनें पढ़ा था की आईना निर्जीव चीजों में दुनिया का सबसे सरल और तिलिस्मी है. इसके तिलिस्म का पता मुझे तब लगा था जब एक बार कम रौशनी में मैंने खुद का चेहरा गायब देखा था. मुझे लगा शायद या मेरी आँखिन का दोष है लेकिन कई बार, बार अपना चेहरा गायब देखने के बाद मुझे लगा की शायद मुझे उस लड़की का चेहरा ढूंढना है जिसे मैंने एक बार चूमा था लेकिन उसका चेहरा नहीं देख पाया था. उस दिन आईने में अपना चेहरा न देखककर मुझे यह अहसास हुआ की मैंने न जाने कितने सालों तक उस लड़की के चेहरे को ढूँढने की कोशिश नहीं की. मुझे यब बात कचोटने लगी की मैनें उस लड़की का चेहरा ढूँढने की कोशिश क्यूँ नहीं कि.

वो लड़की मेरे एक दोस्त की प्रेमिका की बड़ी बहन थी. उन दिनों मैं शायद 18-19 साल का था. और अमूमन अकेला रहा करता था या फिर क्रिकेट खेला करता था. उन्हीं दिनों मेरे दोस्त की प्रेमिका ने मुझे एक नंबर दिया और कहा की यह मेरी बड़ी बहन जिज्ञासा का नंबर है वो आपसे बात करना चाहती है. आप प्लीज उस से बात कर लेना. मुझे समझ में नहीं आया था की एक अनजान लड़की मुझसे क्यूँ बात करना चाहेगी. लेकिन फिर मैंने थोड़ी ना नुकुर के बाद वो नंबर ले लिया. मेरे अन्दर भी शायद किसी लड़की से बात करने की इच्छा मुझे रोमांचित करने लगी थी. मैनें उस लड़की से उस दिन घंटों बात की. उस लड़की ने पहले ही दिन मुझे अपने घर बुला लिया था. उसने बिना किसी भूमिका के सीधी बात करते हुए कहा कि “आज शाम घर पर कोई नहीं है तुम आ सकते हो तो आ जाओ. माँ और पापा बाहर गए हैं और घर पर छोटा भाई है पर उस से डरने की जरूरत नहीं है वो बस 13 साल का है. मैनें उसे कहा है कि आज उसके इंग्लिश के नए टीचर आने वाले हैं. तुम बस इंग्लिश टीचर बनकर आ जाना. मैं तुम्हे घर का पता मैसेज कर दूँगी. बाकी कोई दिक्कत हो तो फोन पर पूछ लेना”. उसने इतना कहकर फोन काट दिया था और मुझे किसी किंकर्तव्यविमूढ़ कीड़े सा गुलाबी और ग्रे रंग की चाशनी में छोड़ दिया.

ऐसा पहली बार हुआ था की मुझे किसी लड़की ने अपने घर बुलाया था. किसी लड़की का मुझे पाने घर बुलाना मेरे जीवन के इतहास की एक कालजयी घटना थी इसलिए मैनें इस कालजयी घटना को और कालजयी बनाने के लिए अपने सबसे बढ़िया कपडे पहने और टायर होकर अपनी साइकिल से उसके घर की तरफ निकल पड़ा. रास्ते में मैंने उसके लिए अपने जीवन की सबसे महँगी चॉकलेट भी खरीदी. मुझे मेरे एक दोस्त ने बताया था की जब भी लड़कियों से मिलने जाते हैं चॉकलेट लेकर जाते हैं. इसलिए मैंने चोकोलेट खरीदी थी. मेरे दोस्त ने मुझे और भी बातें बताई थी लेकिन मुझे बस चोकोलेट ले जाने वाली बात ही सही लगी थी. मैं जब लड़की के घर गया तब मैंने देखा वहां पहले से ही मेरे दोस्त की प्रेमिका मौजूद है. मेरे दोस्त की प्रेमिका ने मुझे सोफे पर बैठने के लिए कहते हुआ कहा “दीदी आ रही है.” उस लड़की का छोटा भाई और उसने मुझे गुड इवनिंग सर कहा. फिर वो कुछ देर वहां बैठा और अचानक से मुझसे कहा कि हम पढ़ाई कल से करेंगे मैं खेलने जा रहा. मैं इस छोटे बच्चे की बात से थोड़ा घबरा सा गया था. मुझे कभी भी लड़कियों के साथ अँधेरे कमरे में अकेले रहने की आदत नहीं थी. उस शहर में बिजली अक्सर दिन में 14 घंटे गायब होती थी. मैं जब वहां गया तब भी बिजली और मेरे अन्दर की हिम्मत दोनों गायब थें.

कुछ देर बाद वो लड़की आई. अँधेरे की वजह से मुझे या तो उसका चेहरा नहीं दिखा था या फिर शायद मैंने उसका चेहरा देखने की कोशिश ही नहीं की थी. उसके आने के बाद उसकी बहन जाने के लिए उठी लेकिन उसने कहा “ईवाषा, तुम यहीं रहो. कोई आएगा तो मुझे फोन कर देना मैं राधेश्याम के साथ छत पर जा रही हूँ.” ईवाषा उस कमरे में अकेली बैठी रही और मैं उसके साथ छत पर चला गया. छत पर भी काफी अन्धेरा था इसलिए मुझे उसका चेहरा नहीं दिखा. छत पर जाते ही उसने मुझे जोर से भींच लिया और कहने लगी की तुम बहुत खूबसूरत हो. अचानक से उसके ऐसा करने पर मुझे समझ नहीं आया कि मैं क्या करूँ, कोई और लड़की होती तो शायद मैं उसे धक्का दे देता या एक झापड़ मार देता लेकिन उसके जिस्म से एक बेहद ही प्यारी सी खुशबू आ रही थी. मैं उसको खुद से दूर नहीं कर पाया. मेरी पकड़ भी उसके जिस्म पर थोड़ी सख्त होती गयी. वो मुझे काफी देर तक बेतहाशा चूमती रही. ऐसा लग रहा था जैसे की शायद उसने मुझमें अपने पूर्व जन्म के उस प्रेमी को देख लिया है जिसे उससे अलग कर दिया गया था. मैं उसके गिरफ्त में एकदम एक शांत सी चिड़िया की तरह था. मुझे लग रहा था कि किसी सुन्दर सी लड़की ने मुझे बाज़ार से बस इसलिए खरीद लिया है ताकि वो उसे अपने सीने से लगाकर प्यार कर सके. वो शायद मुझे काफी देर तक प्यार करती लेकिन ईवाषा का फोन आ गया. उसने मुझे पीछे के रस्ते से जाने के लिए कहा. मैं जाने से पहले एक बार उसके चेहरे को देखना चाहता था लेकिन मैं उसका चेहरा देख नहीं पाया.

मुझे आजतक यह नहीं पता की उस लड़की का चेहरा कैसा था. उस से मिलने के बाद मैंने अपने दोस्त को कहा था की मैं उस से दुबारा नहीं मिलूँगा. मुझे अचानक से किसी का इतना खुल जाना बिलकुल अच्छा नहीं लगता. मेरे दोस्त ने मुझे गर्व भरी दृष्टि से देखते हुए कहा “भाई वो बहुत सुन्दर लड़की है. बहुत ज्यादा सुन्दर. ईवाषा से हज़ार गुणा सुन्दर. मैं ईवाषा से पहले उस से मिला होता तो ईवाषा की जगह वो मेरी गर्लफ्रेंड होती. मुझे मेरा यह दोस्त लड़कियों के मामले में सच्चा नहीं लगता था इसलिए मैंने अपने दोस्त की बात नहीं मानी. मैंने अपना नंबर बदल लिया और उसके लाख बुलाने पर कभी नहीं आया. आखिरी बार मेरी उस से बात तब हुई जब मेरे दोस्त का ईवाषा के साथ ब्रेकअप हो गया. हम दोनों शराब पी रहे थे. मेरे दोस्त ने कहा की ये ले उसकी बहन से बात कर उसको गाली दे. मैं शुरुआत से ही लड़कियों के मामलों में काफी जहीन और सभ्य था लेकिन उस दिन मैंने न जाने क्यूँ उसे गाली दे दी. मेरा दोस्त हंसा और फोन काटने के बाद काफी देर तक शराब पीते रहा. मैनें भी उस दिन काफी शराब पी लेकिन पूरी रात इस ग्लानि में रहा की मैंने उसे बेवजह गाली दी.

मुझे इस लड़की की कभी याद नहीं आई. इसका चेहरा मेरी स्मृति में नहीं था. मेरी स्मृति में बस इसके शरीर की खुशबू थी. कभी कभी जब मेरी नाक में कोई प्यारी सी सुगंध पहुँचती तब मुझे उसकी याद आ जाती. मुझे अगर आईने में उस दिन अपना चेहरा गायब हुआ नहीं दिखता तो शायद मैं कभी भी इस लड़की के बारे में इतने देर तक सोच पाता. मुझे न जाने क्यूँ ऐसा लगा की मुझे इस लड़की का चेहरा देखना चाहिए. मैंने सोशल मीडिया पर कई बार उसका नाम लिखकर उसे ढूँढने की कोशिश की लेकिन मैं कभी उसे ढूंढ नहीं पाया. सोशल मीडिया प्रोफाइल से किसी के शरीर की खुशबू आती तो शायद मैं उसे ढूंढ लेता. हालांकि, अभी तक हमारी तकनीक इतनी उन्नत नहीं हुई थी. सालों बाद शायद जब मेरी उम्र 60-70 की हो तब शायद तकनीक इतनी उन्नत हो जाए कि मैं सोशल मीडिया पर उसकी सुगंध से उसे ढूंढ लूं.

मुझे लगता है की मेरे कमरे में पड़ी ये चीजें बस चीजें नहीं है. मुझे लगता है ये शायद किस जादूगर के तिलिस्म में फंसे हुए वो लोग है जो कभी कभी मेरी कहानियों में आते हैं. मैं भी शायद कोई शापित ऐशट्रे हूँ जिसे किसी ने शायद इंसान होने का शाप दे दिया हो. यह शायद शाप की वजह से ही मैं इन चीजों से बात कर पाता हूँ या उनके बारे में इतना सोच पाता हूँ.

उस दिन जब मैं बहुत देर तक अपने घर की चीजों से बात नहीं कर पाया, और जब उस लड़की का भी कोई सन्देश नहीं आया तब मैं वापिस तारे गिनने बालकनी में आ गया. मैं तारे गिन रहा था और उसी बीच एक तारा टूटा. तारा टूटने से दो चीजें हुई. मेरी गिनती से एक संख्या कम हुई और मैंने एक दुआ मांग ली. उस दिन फिर से मुझे आसमान में उस तारे ने मेरी 3 साल की अंगुली को छुआ. मैं इतना खुश कभी नहीं हुआ था. मैं जब वापिस कमरे में आया तब मैंने देखा की मेरे कमरे से मेरी चीजें गायब हो गयी हैं और उनकी जगह कई लोग खड़े हो गए हैं. मैं इन लोगो के रंगत और बनावट से यह पहचान पा रहा था की ये मेरे कमरे की चीजें अचानक से इंसान के रूप में आ गयी है. शायद ये किसी श्राप या जादू से मुक्त हो गए हैं. मुझे वो लड़की भी दिखी जिसका चेहरा मैं कभी देख नहीं पाया था. मेरी कहानी के वो सभी लोग मुझे दिखें. ये सब शायद किसी जादू के कारण मेरे कमरे में निर्जीव चीजों के रूप में फंसे हुए थे.

ये सब मेरे कमरे में ख़ुशी से नाच रहे थे. मैंने इन सबसे एकबारगी कहा की अब आप सब अपनी अपनी दुनिया में जा सकते हैं. या फिर आप फिर आप सब मुझे श्राप मुक्त होने की दुआ कर सकते हो.

मेरे इतना कहने पर वो लोग अचानक से शांत हो गए और मेरे कमरे से निकल गए. जाते जाते उन्होंने मेरे लिए दुआ मांगी. मेरे कमरा खाली हो चुका था. मेरे कमरे में कुछ नहीं था. सिवाय मेरे और उस गिलास के जो अब एक सुन्दर लड़की में बदल चुका था. उस लड़की ने कहा की मैं नहीं जाउंगी. इतना कहने के बाद उसने अपनी जेब से एक सिगरेट निकाली और पीने लगी. “मेरी कहानी सुनोगे.” उसने इतना कहा और सिगरेट की राख मेरी छाती पर डाल दी.

मुझे लगा की अचानक से मेरा आकर बदल चुका है. मुझे लगा शायद मैं एक एशट्रे बन चुका हूँ. लड़की बनी गिलास ने मुझे चुमते हुए कहा “तुम अब श्राप मुक्त हो, छोटी चीजों के देवता”.   

एक्वेरियम

मैं कहीं भी जाना नहीं चाहता था. मैं चाहता था की मैं अपने घर के कमरे के खिड़की दरवाजे सब बंद कर लूं और धीमी रौशनी वाले नीले बल्ब की रौशनी में अपने कमरे में पड़ी एक्वेरियम की मछलियों को देर तक तैरते हुए देखूं. मुझे सिगरेट न पीने की एक बुरी आदत थी. मैं मछलियों को देखते हुए देर तक सिगरेट केस में बची एक आखिरी सिगरेट को देखता, उसे सूंघता और बिना जलाये उसे पीने की कोशिश करता. मुझे यह आदत बहुत तिलिस्मी लगती थी. मछलियों की आँखों से भी ज्यादा तिलिस्मी. मुझे कमरे की नीली रौशनी में जब भी ऐसा लगता की मछलियों के एक्वेरियम के बाहर कि दुनिया में मैं डूब जाने वाला एक जहाज हूँ तब ही मैं अपने कमरे से बाहर निकलता.

कमरे से बाहर निकलकर लोग अमूमन कहीं जाते हैं. मुझे जाना बिलकुल पसंद नहीं था इसलिए मैं अपने घर के बाहर वाले सड़क पर खड़ा हो जाता. मैं काफी देर तक एक बिल्ली का इन्तजार करता. मैं हर दिन चाहता था की बाकी लोगों को यह जताने के लिए की मैं भी कहीं जाता हूँ चले जाने का अभिनय करूँ. इसलिए शायद मैं रोजाना अपने घर के सामने वाली सड़क पर खड़ा होकर बिल्ली के आने का इन्तजार करता. मैं चाहता था की रोजाना कोई बिल्ली मेरा रास्ता काटे और मैं वापिस अपने घर के अपने कमरे में लौट जाऊं.

उस दिन भी मैं इसी तरह सड़क पर खडा था. मैनें देखा की एक बिल्ली मेरी तरफ आ रही है. मैं उम्मीद कर रहा था की यह मेरा रास्ता काटेगी और मैं वापिस अपने कमरे में चला जाऊँगा. वो बिल्ली मेरे थोड़ा पास आई और रुक गयी. उसने मेरा रास्ता नहीं काटा. वो बस देर तक मुझे निहारती रही. शायद वो मुझे पढने की कोशिश कर रही थी. काफी देर तक मेरे चेहरे को पढने के बाद वो पीछे मुड़ गयी और बिना रास्ता काटे पीछे चली गयी. जाते जाते उसने कहा “मुझे भी तुम्हारी तरह कहीं जाना पसंद नहीं”. उस दिन मैं कमरे में नहीं लौटा. उसी सड़क पर खडा रहा.

मैनें कई दिनों तक उस बिल्ली के या किसी और बिल्ली के आने का इन्तजार करता रहा. पर मैनें उस दिन के बाद दुबारा कभी बिल्लियाँ नहीं देखी. मैंने करीब उस सड़क पर एक साल तक बिल्लियों का इन्तजार किया था. फिर एक दिन मैं उब कर वापिस अपने घर गया. एक्वेरियम में पानी खत्म हो चुका था. मछलियों की लाशें सड़कर जीवाश्म में बदल गई थी. एक्वेरियम में बस एक मछली ज़िंदा थी जिसके पैर और हाथ उग आये थे. वो एक्वेरियम के एक कोने में खड़ी थी मानों जैसे कहीं न जाने के लिए वो किसी बिल्ली का इन्तजार कर रही हो.

बहेलिया

ये आम सी कहानी भी उसी आसमान की है जहाँ रात में एक ही चाँद उगा करता है. ये किसी भी तरह उस आसमान की कहानी नहीं है जहाँ 7 चाँद उगते हैं. ऐसा आसमान भी कहीं होता होगा क्या? मुझे नहीं लगता की ऐसा कोई आसमान भी कहीं होता होगा. पर मेरे लगने से ही सब कुछ सही गलत तो नहीं हो सकता ना. काफी संभावनाएं हैं की ऐसा कोई आसमान होगा जहाँ 7 चाँद उगते होंगे. बस मुझे उस आसमान के बारे में नही पता है. मुझे सबकुछ थोड़े ही पता है. या सबको सबकुछ थोड़े ही पता होता है. आपको पता है कि इस दुनियां में चुड़ैलें भी होती हैं?

एक बार एक लड़के ने यूँ ही सड़क पर जा रही, एक लड़की के बारे में बहुत घिनौनी बात कही थी. लड़कियों के बारे में कई सारे लोग घिनौनी बाते करते हैं, उन लड़कियों के बारे में भी जिन्हें वो जानते भी नहीं. ये लड़का भी वैसा ही था. उसे इस राह चलती लड़की के बारे में कुछ भी नहीं पता था फिर भी उसने उसके बारे में एक घिनौनी बात कही. बात इतनी घिनौनी थी की चाय के टपरी पर सरकार को गाली देने वाले लड़कों के अन्दर क्रन्तिकारी की आत्मा कब्जा कर ले. मेरे साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ था. मैंने उस लड़के को बहुत मारा. लड़का बहुत पिटा लेकिन उसने मुझपर हाथ नहीं उठाया. मार खाता रहा. काफी देर पीटने के बाद वो उठा और उसने अपना एक पैर दिखाते हुए कहा मैं अपाहिज हूँ.

मुझे बिलकुल पता नहीं था की वो अपाहिज है. वो सोच से थोडा अपाहिज है ये पता था लेकिन वो पैर से भी अपाहिज है मुझे नहीं पता था. मुझे लगा था कि इसने एक लड़की के बारे में घिनौनी बात कही है तो, ये शारीरिक रूप से अपाहिज नहीं हो सकता. मुझे उस पर अचानक से दया आ गयी. मैं ग्लानि के लिजलिजे दलदल में गिरता चला गया. इस से पहले मैं ग्लानि के दलदल में डूब कर मर जाता, मैंने उसे चाय के दूकान से एक कप चाय बनवाकर उसे थमा दिया. वो चाय पीता रहा. चाय पीने के बाद उसने एक बार फिर सभी लड़कियों को संबोधित करते हुए एक गन्दी और लिजलिजी बात कही और लंगड़ाता हुआ चला गया. इस बार मुझे गुस्सा नहीं आया. मैं चुपचाप बैठा रहा और सोचने लगा शायद इसके पैर और मन से अपाहिज होने की वजह कोई लड़की रही होगी. ब्रह्माण्ड में बहुत सारे ग्रह होंगे लेकिन सबसे ज्यादा पूर्वाग्रह पृथ्वी नामक ग्रह में हैं.

मैं एक लड़की को 2 साल से ज्यादा लम्बे समय से अपने सीने से चिपकाकर चलता हूँ. हम दोनों प्रेम के पूर्वाग्रह पर बैठकर आत्ममुग्धता का सी सॉ खेलते. वो कहा करती की तुम्हारे सीने से ज्यादा महफूज जगह इस दुनिया में और कहीं नहीं हो सकती. जब वो ऐसा कहती तो मुझे उसकी आवाज ऐसी लगती जैसे किसी ने दुनिया के सबसे विशाल मटके में बैठकर कलिम्बा पर कोई सुन्दर सी धुन निकाली हो. कुछ लोग बस इस बात से ही ज्यादा खुश होते हैं कि कोई उनकी वजह से बहुत खुश है. मैं भी ऐसे ही लोगों में से था. बहुत खुश. मैनें ऐसे ही एक बार खुश होकर उस से कहा था कि चलों हम एक बहुत ही खुश जगह चलते हैं. वो भी बहुत खुश थी इसलिए उसने भी कहा कि चलो अब हम हमेशा साथ चलते हैं.

वो खुश जगह इस दुनिया की बाकी जगहों की तरह ही थी लेकिन उस जगह को मैनें खुश जगह इसलिए कहा था क्यूंकि उस जगह मैं था, वो थी और दोनों खुश थी. अत्यधिक ख़ुशी किसी परत या लिहाफ के अन्दर रहना नहीं चाहती इसलिए हम दोनों साफ़ पानी की तरह पारदर्शी हो गए. मैं कभी इतना पारदर्शी नहीं हुआ था और न ही कभी किसी और लड़की को इतनी पारदर्शिता के साथ देखा था.
“ये तुम्हारे शरीर पर किस चीज का निशान है “ मेरी आँखों ने उसकी पारदर्शिता को समेटते हुए पूछा.
“कुछ नहीं, टैनिंग का निशान है. आज काफी दिनों बाद पूरी तरह से पारदर्शी हुई हूँ तो शरीर के उन हिस्सों के निशान बन गये हैं जो आज से पहले कभी इतने खुश और यायावर नहीं हुए थे .” ऐसा कहते हुए मुस्कुराई थी. उसकी मुस्कराहट पर चांदी का वर्क तब चढ़ गया जब उसने मेरे छाती पर एक निशान देखा. “यह कैसा निशान है. यह तो किसी लड़की के चिपकने का निशान है.”

मैनें कभी खुद को इतने गौर से नहीं देखा था. हममें से कई लोग खुद को कभी गौर से नहीं देखते. खुद को गौर से देखने के लिए मैं उस खुश जगह में दुखी-दुखी से खड़े आईने के सामने गया. मैंने देखा की मेरी छाती पर एक खूबसूरत सा निशाँ है. जैसे किसी एक लम्बे बाल वाली लड़की मुझे पकड़ कर झूल गयी हो और अपनी परछाई मेरी छाती पर छोड़ गयी हो. सबकी छातियों पर इतने खूबसूरत निशान नहीं होते. मैंनें कहा “यह दुनिया का सबसे खूबसूरत निशान है. ये आसमान में उड़ने वाली किसी भटकी हुई परछाई का निशान है जो शायद आज के बाद कभी नहीं भटकेगी.” उसने मेरी आँखों को बहुत प्यार से और गहराई से देखा जैसे मेरी आँखों में उसने दुनिया की हजारों रूहों को हँसते हुए देख लिया हो. मेरी बातों को सुनकर वो बहुत जोर से मुस्कुराई थी. इतनी जोर से की कुछ देर के लिए वो खुश जगह ख़ुशी से काँप गयी.

मैनें एक दिन सपने में देखा की एक बहुत बड़े पिंजड़े से एक सुन्दर सा पंक्षी आज़ाद हो गया है. ये एक खूबसूरत सा सपना था. मैं शायद ये सपना देखने के बाद उठने पर मुस्कुराता लेकिन ऐसा नहीं हुआ. मैं यह सपना देखकर उठा. ठीक उस तरह जैसे सालों बाद हम अपने कमरें में अपने भीतर के सभी अच्छे बुरे इंसानों के आने की आहट से उठते हैं. यह सपना एक बुरा सपना नहीं होता अगर सपने में मैं पिंजडा नहीं बना होता. मैं सपनों में हमेशा सफ़ेद घोड़ों पर सवार होने वाला राजकुमार बनना चाहता था लेकिन इस सपने में, मैं पिंजड़ा बना. मैं यह सपना देखकर रोता नहीं अगर मेरे कमरे में बैठे वो लोग जोर जोर से हँसना नहीं शुरू करते.

मैनें कई लोगों को घंटो पज़लिंग बोर्ड गेम खेलते हुए देखा है. लोगों को पहेलियाँ सुलझाने, चालें बनानें, शह और मात देने में अच्छा लगता है. मुझे बिलकुल नहीं लगता था. मैं पहेलियाँ देखकर भाग जाता था. बचपन में, मैं चुड़ैलों से डरता था. जब बड़ा हुआ और पैसों के पीछे भागने के लिए धकेल दिया गया तब मैं पहेलियों से डरने लगा. मुझे चुड़ैलों का चेहरा पवित्र लगता. मैं ऐसा सोचता था की कभी मेरे घर के बाहर वाली बालकनी में कोई चुड़ैल आकर बैठ जाए तब मैं उसे कॉफ़ी पिलाऊंगा और अपनी कवितायेँ सुनाऊंगा. चुड़ैल पहेलियाँ नहीं होती क्यूंकि हमें पता होता है कि वो बस चुड़ैल होती हैं. इसलिए शायद मुझे ये चुड़ैलें पवित्र लगती थी. चुड़ैलें आपकी छाती पर शतरंज नहीं खेलती. चुड़ैलें आपके शरीर को बोर्ड गेम नहीं बनाती.

एक रात जब मैं ऐसी ही एक चुड़ैल के सामने बैठा अपनी एक कहानी सूना रहा था, तब उसने मेरे छाती के निशान देखते हुए पूछा “ये कैसा निशान है?”
“कैसा निशान? तुम्हें मेरे कपड़ों के अन्दर छिपे निशान कैसे दिख गए”
वो मुस्कुराई जैसे वो अपने मुस्कराहट से बताना चाह रही हो कि उसके सामने मैं बिलकुल पारदर्शी हूँ. बिलकुल अपने सबसे प्राकृतिक अवस्था में.
“एक लड़की थी. जिसे मैं हमेशा अपनी छाती से चिपका कर रहता था. वो बहुत खुश थी. ये उसी के चिपकने का निशान है.” मैनें एक बहुत सी शांत लेकिन बोझ से दबी हुई आवाज में यह बात कही.”
उस चुड़ैल ने झट से अपने सारे कपड़े उतार दिए और मेरे सामने खड़ी हो गयी. बिलकुल पारदर्शी. इतनी पारदर्शी की मुझे उसके जिस्म में अपने जिस्म की परछाई नजर आई. वो चुड़ैल से अचानक एक आइना हो गयी. मैंने काफी दिनों बाद अपने छाती पर बना वो निशान आईने में देख रहा था. यह एक खुश आइना था. इसने मुझे दिखाया की मेरी छाती पर एक लड़की के परछाई का निशान तो है लेकिन लड़की मुझसे लिपटी हुई नहीं हैं बल्कि मेरे जिस्म पर सलीब की भाँती गुंथी हुई है. जैसे मेरी छाती कोई सूली हो और उसपर किसी ने उसे चढ़ा दिया हो. लेकिन किसने?

मैं उस चुड़ैल से बहुत कुछ पूछना चाहता था. लेकिन मैं उस चुड़ैल से कुछ भी कहता उस से पहले ही वो चली गयी थी. मैंने बस एक गाड़ी के जाने की आवाज सुनी. मैं बहुत जोर से चिल्लाना चाहता था और मैं चिल्लाया भी. मेरे चिल्लाने की आवाज सुनकर आस पास के पेड़ों की सभी चिड़ियाएँ एक साथ उड़ते हुए आसमान में दूर चली गयी. शायद उन्हें लगा होगा की मैं कोई बहेलियाँ हूँ. जैसे मुझे लगा था की वो मेरे साथ खुश है. जैसे मुझे लगा था वो लड़का अपाहिज नहीं है. जैसे मुझे अबतक लगता है कि मैं एक बुरा आदमी नहीं हूँ. जैसे उसे शायद लगता होगा की मैं एक पिंजडा हूँ. एक जमाने में हम दोनों एक ही आँख से सपना देखा करते थे. शायद उसने मेरा कोई सपना देख लिया होगा और शायद ऐसी जगह चली गयी होगी जहाँ के आसमान में सात चाँद उगते होंगे. क्या आपको भी लगता है कहीं ऐसा आसमान होगा?

(C) Brajesh Kumar Singh (Arahaan)
Photo Courtesy: @monkeyoutside (Instagram)

मास्टरपीस

मास्टरपीस मैं चित्रकार नहीं हूँ. तुम्हारा चित्र नहीं बना सकता. उस समय भी नहीं जब तुमने पहली बार मेरे सामने कुर्सी पर आँखें मूंदकर शान्ति से अपने गीले बालों को सुखा रही थी. ऐसा लग रहा था कि जैसे दुनिया की सबसे खूबसूरत कविता को लिखने वाली स्याही की बूदें जुगनुओं की तरह दुनिया के सबसे खूबसूरत चेहरे के इर्द गिर्द भटके उपग्रहों की तरह घूम रही हों. मेरी आँखें काँप सी गयी थी. मुझे उस दिन पहली बार खुद का एक चित्रकार न होना आत्महत्या कर लेने जैसा दुखद लगा था. मैं शायद खुद को मार भी लेता लेकिन तुम्हारे बालों से आ रही उस खुशबू ने मुझे काठ का बना दिया था. मैं थोड़ा बहुत लिख लेता हूँ लेकिन मैं उस खुशबू को शब्दों में नहीं ढाल सकता. ऐसा लग रहा था पहली बारिश से नहाई मिट्टी ने रातरानी के फूलों को चूम लिया हो. मुझमें अगर कुछ हरकत होने की गुंजाइश होती तो शायद मैं उठकर उस खुशबू को एक छोटी सी शीशी में बंद कर लेता और रातों को तारे गिनते समय अपनी अँगुलियों में लगा लेता.

यह ऐसा पहली बार ही हुआ था की मैंने इस तरह तुम्हारे गीले खुले बालों को देख रहा था. लेकिन न जाने क्यूँ मुझे ऐसा लग रहा था की शायद मैंने तुम्हे इस तरह पहले भी देखा है. शायद 20-30 साल पहले. शायद मैं कोई मजदूर था . शायद मैं किसी इमारत के तीसरी मंजिल पर रस्सी के सहारे लटककर वेल्डिंग का काम रहा था. वेल्डिंग मशीन की चिंगारियों की चकाचौंध से झुलसी मेरी आँखों जब तुम्हे सामने वाली घर के कमरे में कुर्सी पर यूँ बाल सुखाते देखा था तो शायद मेरे हाथ से वो मशीन छुट गयी थी. मेरी झुलसी आँखों को तुम्हारे काले और जादुई धागों जैसे बालों को देखकर एक अजीब सी ठंडक मिली थी. मैंने शायद उस दिन यह कसम खायी होगी की मैं तुम्हारे चेहरे की शांति तुम्हारे बालों के तिलिस्म को शब्दों में लिखने के लिए एक न एक दिन एक लेखक जरुर बनूँगा. मैं शायद कुछ भी भूल जाऊं पर तुम्हारा यह चेहरा न भूलूँ. इतना कहकर मैं शायद उस इमारत से गिरकर मर गया होऊंगा.

मैं अब थोड़ा बहुत लेखक जैसा हूँ लेकिन शायद मैं मजदूर था तब गलत था. मुझे लेखक बनने की बात नहीं सोचनी चाहिए थी. मैं इतना नौसिखिया लेखक हूँ की मैं शब्दों में इस दृश्य को नहीं लिख सकता. ना ही मैं कला का इतना धनी हूँ की अचानक से एक चित्रकार बनकर तुम्हारे इस चित्र को बनाकर अमर हो जाऊं. तुम्हें कभी किसी मजदूर का सपना आया था? तुम्हारी बंद आँखें समुन्दर में डूबे जहाज जैसी क्यूँ हैं? तुम्हारे काले घने केश मुझे किसी और दुनिया के पवित्र ग्रंथों के श्लोक/आयत जैसे क्यूँ लगते हैं?तुम्हारे ये गीले बाल जब सुख जायेंगे. जब तुम्हारी आँखें खुलेगी तब भी शायद मैं दुनिया की सबसे पवित्र रूह से भी ज्यादा खूबसूरत तुम्हारे चेहरे और काले गीले बालों के लिए चार-पांच हिले डुले शब्दों से ज्यादा कुछ नहीं लिख पाया होऊंगा. मैं शायद उस कमरे में ही तुम्हे निहारते-निहारते बुत बन गया होउंगा या फिर आने वाले 20 साल बाद इसी तरह के किसी कमरे में बैठकर तुम्हारे इस चेहरे और गीले बालों को कैनवास में उतारने की तैयारी में लग गया होउंगा.

अरहान

जाने की आवाज़

एक दिन मैं अगर यूँ हीं दुकानदार से एक किलो मसूर की दाल खरीदने के बाद पूछूं की “भैया, आपने जाने की अबतक कितनी आवाजें सुनी है” मुझे अंदाजा ही की मेरे द्वारा इस अप्रत्याशित सवाल पूछे जाने के बाद दुकानदार मुझे मन हीं मन पागल कहे. यह भी मुमकिन है कि एक दिन जब उसके दूकान पर कोई ग्राहक न आया हो और बोरियत से बचने के लिए उसने पांचवीं बार उसने उस दिन का अखबार उठाया हो और अनमने ढंग से अखबार के साहित्य का कोना वाले पेज पर मेरी कहानी पढ़ी हो. इस बात को याद करते हुए वो शायद समझे की मैं एक लेखक-साहिय्ताकार जैसा आदमी हूँ और शायद लेखक साहित्यकार लोग ऐसे ही प्रश्न पूछते हैं इसलिए उसने यह कहने की बजे कि “आप पागल हैं क्या” उसने यह कहा की उसे यह प्रश्न का उत्तर नहीं पता.

मैं यह तो बिलकुल भी नहीं कहूँगा अकी मैं एक खाली आदमी हूँ और कोई काम न होने की वजह से मैं ऐसी बातें सोच रहा हूँ. हाँ, ठीक है मैं मानता हूँ कि मेरे पास काम नहीं है. हाँ लेकिन बस काम न हो पाने की वजह से हीं कोई खाली नहीं हो जाता. आपके गालों पर अगर काफी दिनों तक उन जाने पचाचाने बालों की छाँव न मिले तब भी आप शायद खाली हो सकते हैं. खाली होने के लिए बस काम का न होना हीं जरुरी नहीं है. उस दुकानदार को शायद यह नहीं पता होगा की मैं खाली आदमी हूँ. और उसे पता भी कैसे चले. मैं आये दिन उसके दूकान से सामान खरीद कर ले जाता हूँ. उसे पता है की मैंने कॉलोनी के सबसे महंगे घर का किरायेदार हूँ. उसे लगता होगा की मैं कहीं न कहीं काम तो करता ही होउंगा. उसने शायद इसी बात से अंदाजा लगाया होगा कि मैं खाली आदमी नहीं हूँ. और शायद इसलिए उसने मेरे प्रश्न का जवाब नहीं दिया. उसे अगर पता होता की मैं खाली आदमी हूँ तो शायद मुझपर दया खाकर और पीने के लिए को जूस या कोल्ड ड्रिंक देकर मुझे बताता कि जाने की आवाज कैसी होती है.

मेरी दुनिया से यूँ ऐसे कई लोग गए हैं. मैं एक दम से आश्वस्त होकर यह तो नहीं कह सकता की मैनें सबके जाने की आवाजें सुनी हैं. हाँ, लेकिन मैं कुछ लोगों के जाने की आवाजों को बहुत देरतक सुना है. ये वो लोग थे जो मेरे बहुत करीब थे. इनके जाने की आवाज में एक एम्बुलेंस की आवाज काफी देर तक एक बिनबुलाये मेहमान की आवाज की तरफ शामिल हुई थी. एम्बुलेंस की आवाजें मुझे शैतानों की दुनिया की सबसे शैतान चुड़ैल के गुनगुनाने की आवाज जैसी लगती है. कुछ लोगों के जाने की आवाजों में दरवाजें के धड़ाम से बंद हो जाने की आवाज शामिल थी. वो धड़ाम की आवाज इतनी तेज थी की मुझे काफी दिनों तक कर्कश से कर्कश आवाज भी वीणा के धुन की तरह लगी. एम्बुलेंस के आवाज दरवाजे की धड़ाम वाली आवाज में ये फर्क था की एम्बुलेंस की आवाज जाने वाली को ऐसी जगह ले गयी जहाँ शायद सबकुछ पारदर्शी होता होगा, सबकुछ स्वच्छ, निर्मल, शुद्ध, धवल. वहीँ दरवाजे की धडाम वाली आवाज जाने वाले को कहीं ज्यादा दूर लेकर नहीं गयी. इसी दुनिया में आजाद छोड़कर गयी. बस मेरे लिए वहां एक बड़ा सा ताला लगा दिया. मैंनें खाली समय में कई दफा इनके जाने की आवाज पर कई बड़े-बड़े शोधपत्र अपनी डायरी में लिखें. मैं घंटों इन आवाजों के बारे में सोचता और दुनिया में कई और तरह के जानें की आवाजों से तुलना करता. मैंने टीवी पर एकदिन एक खबर सुनी की एक अभिनेता ने फांसी लागाकर जान ले ली. मैनें उसके दुनिया छोड़ जाने की खबर सुनने के तुरंत बाद उसके जाने की आवाज के बारे में सोचने लगा लेकिन काफी समय तक मुझे उसके जाने की आवाज नहीं सुनाई दी तो मैंने उसकी एक फिल्म का गाना सूना जिसमें उसका किरदार सहायक अभिनेता का था लेकिन गाना उसी पर फिल्माया गया था. मैंने उस दिन यह तय कर लिया कि मेरे लिए उसके जाने की आवाज यही गीत है.

मेरे खबर ऐसे कई अभिनेता और कई ऐसे लोग दुनिया छोड़ के गए थे. लेकिन पता नहीं क्यूँ मैंने बस इसी अभिनेता के जाने के आवाज के बारे में सोचा. शायद इसलिए क्यूंकि मेरी दुनिया में शख्स ऐसा भी था जिसके जाने की आवाज मैनें नहीं सुनी थी. नहीं, वो इस दुनिया से नहीं गया था वो बस मेरी दुनिया से गया था फिर भी मैनें उसके जाने की आवाज नहीं सुनी थी. इसी शख्स ने एक बार मुझसे कहा था की कुछ तस्वीरों में मेरा चेहरा बिलकुल इस अभिनेता से मिलता है. इस शख्स ने इस अभिनेता की उस फिल्म का वो गीत भी मेरे लिए गाकर रिकॉर्ड किया था जिसे मैं उस अभिनेता के जाने की आवाज मान चुका हूँ. शायद यही वजहें हैं कि मैनें इस अभिनेता के जाने की आवाज के बारे में सोचना जरुरी समझा था या सोचा था. “चार कदम बस चार कदम चल दो न साथ मेरे.”

मेरे जीवन का यह शख्स मेरे बहुत करीब था जो अचानक से एक दिन मेरी दुनिया से चला गया था. मैंने उसके जानें की आवाज नहीं सुनी थी इसलिए शायद मैं सालों तक यह यकीन हीं नहीं कर पाया की वो मेरी दुनिया से चला गया है. कई बार कई तरह के जादुई नंबरों को दबाकर मैं उसकी आवाज सुनने की कोशिश करता था पर कभी उधर से कोई आवाज नहीं आती थी. एक दफा एक स्क्रीन पर वो अक्षरों में आई और बिना जुबान से कुछ कहें उसने मुझे कहा कि आई एम् गोन. आई ऍम नोट पार्ट ऑफ़ योर लाइफ एनीमोर. एक्सेप्ट इट.” मुझे एक छोटी सी बात बुरी लगी की ये अंग्रेजी भाषा में कुन बात कर रही. वो हिंदी में भी तो बोल सकती है. उसने दिल दुखाने वाली ज्यादातर बातें अंग्रेजी भाषा में ही बोली थी इसलिए मुझे अंग्रेजी भाषा से थोड़ी सी नफरत भी हो गयी थी. मैंने उसे उस दिन सैंकड़ों दफा देवनागरी लिपि के अक्षरों में हिंदी भाषा में यह कहने की कोशिश की मैं मान ही सकता यह बात. वो अब भी मेरी दुनिया में है. मैंने उसके जाने की आवाज नहीं सुनी है. मैंने कई दफा उस तक पहुँचने की कोशिश की लेकिन हर दफा उसतक पहुँचने में लगने वाले चार क़दमों में से तीसरे कदम पर लगता जैसे सामने कोई बहुत विशाल दरवाजा है जो ताले चाभी से नहीं किसी मन्त्र के उच्चारण से खुलता है. मैंने उन दरवाजों के सामने कई मन्त्र पढ़े.
“मैं अच्छा व्यक्ति हूँ.”
“मैं किसी का दिल नहीं दुखाता.”
“माना शराब पी लेता हूँ लेकिन दिल का साफ़ आदमी हूँ.”
“अबसे कोई भी गलती नहीं होगी जाने अनजाने में भी नहीं, आ जाओ एक बार.”
“मैं बहुत बड़ा आदमी बनूँगा, बहुत मेहनत करूँगा”

मैंने ऐसे कई तरह के मन्त्रों के उच्चारण किए लेकिन वो दरवाजा नहीं खुला. दरवाजे से खाली हाथ लौटने के बाद मैंने एक ऐसे आदमी के बारे में कहानी बुनने की कोशिश की जिसने दरवाजे पर दस्तक देते देते अपने दोनों हाथ खो दिए थे. पता नहीं क्यूँ मुझे अचानक से रोना सा आ गया. शायद अपनी ही बनायीं कहानी के किरदार की हालत पर या खुद की हालत पर. इसलिये वो कहानी पूरी नहीं हो पायी. मेरे अन्दर की हजार कमियों में से एक कमी यह है की मैं रोते हुए कहानी नहीं बुन पाता. एक बार जब मैनें रोते हुए एक कहानी बुनी थी और अपने एक दोस्त को पढ़ाई थी तो उसने कहा था “ये कहानी है? यह कहानी से ज्यादा तो हकीकत लग रही है.” इतना कहकर वो बहुत हंसा था. लेकिन उसकी हंसी थोड़ी अजीब सी थी. वो मेरा करीबी दोस्त था और वो कभी यह जाताना नहीं चाहता था की उसे भी मेरी हकीकत का दुःख है. इसलिए उसने शायद रोने की जगह हंसने की कोशिश की थी. लेकिन मुझे पता था वो एक दिन कभी न कभी मेरी इस बात पर आंसू बहायेगा. हो सकता है वो कोई गेम खेलते खेलते किसी विलेन के मर जाने पर आंसू बहा दे. या फिर कभी बाइक चलाते चलाते रोने लगे. कोई पूछे की क्यूँ रो रहा तो हो सकता है वो बोले की वो आँख में धुल भर गया था बाईक चलाते चलाते. ऐसा कहते हुए हो सकता है वो अपना शीशे वाला हेलमेट छिपाने की कोशिश करे या फिर अपना चश्मा तुरंत निकाल दे. करीबी दोस्त इसलिए भी करीबी होते हैं कि वो साथ रोना नहीं चाहते या फिर यह जताना नहीं चाहते कि उन्हें अपने दोस्त कि फ़िक्र है.

मैं काफी दिनों तक उसके जाने की आवाज के पीछे पागलों की तरह पड़ा रहा. मैंने इस बात को मानने में काफी समय लगा दिया की वो मेरी दुनिया से चली गयी है बिना किसी आवाज के. मैं अब शायद धीरे-धीरे यह यकीन भी करने लगा था की वो जा चुकी है और सभी के जाने की आवाज नहीं होती. कुछ लोग बस ऐसे ही चले जाते हैं. बिना किसी शोर शराबे के. चुपचाप. वो इतनी शांति से जाते हैं की उनके क़दमों की आहट भी महसूस नहीं होती. मैं जिस शहर में पला बढ़ा था उस शहर में भी एक लड़का था जो ऐसे ही एक दिन सबसे दूर चला गया था. वो एक दिन अकेले रणबीर कपूर नामक किसी अभिनेता की रॉकस्टार नामक फिल्म देखने गया और कभी वापिस नहीं आया. न कभी उसकी लाश मिली.कुछ भी पता न चला. कुछ सालों बाद तो यह भी होने लगा था कि उस से जुडी चीजें भी गायब होने लगी. मसलन उसके करे में पड़ा उसका क्रिकेट बैट, उसका गिटार, उसके कपड़े. वो अपने फैमली एल्बम के पुराने तस्वीरों में से भी गायब होने लगा. उसके बचपन की एक सबसे प्यारी तस्वीर थी जिसमें उसकी मां उसे अपने गोद में लिए होती हैं और उसने एक नीले रंग का प्यारा सा उसकी माँ द्वारा ही बुना स्वेटर पहना होता है. अब उस तस्वीर में बस उसकी मां है और उनके हाथ में वो स्वेटर. वो अपनी सबसे पुरानी तस्वीर सी ही गायब हो गायब था. इस दुनिया की तो बात ही छोड़िये. उसके गायब होने से जुड़ी सबसे भयानक यह है कि उसके गायब होने के ४ साल बाद जब मैंने उसकी मां से उसके बारे में पूछा तो उन्होंने चौंकते हुए कहा “कौन विद्युत्. मेरा कोई बेटा ही नहीं. तुम यह क्या सवाल पूछ रहे हो”. मैंने उसकी मां से ज्यादा सवाल नहीं पूछे. मुझे पता चल गया था की अब वो अपनी माँ की स्मृतियों में से भी गायब हो गया है. गायब होने की इससे बुरी घटना मैनें ना ही अपने जीवन में कभी देखी सुनी थी या फिर किसी कहानी में ऐसा होते कुछ सुना था.

बाद के कई सालों बाद जब मैंने रॉकस्टार मूवी देखी तब मुझे फिल्म के एक डायलाग ने चौंका दिया. फिल्म में एक जगह रणबीर कपूर कहता है “पता है, यहाँ से बहुत दूर गलत और सही के पार एक मैदान है, मैं वहां मिलूँगा तुझे.” मैं फिल्म का यह डायलाग सुनकर बहुत डर गया. मुझे लगा विद्युत् भी शायद ऐसे ही किसी मैदान में खड़ा होगा और सबका इन्तजार कर रहा होगा . लेकिन मुझे यह बात बिलकुल डरा गयी क्यूंकि मेरा यह मानना है की सही और गलत के बीच कोई मैदान नहीं है. कोई आसमान नहीं है. वहां बस एक रिक्तता है. शायद विद्युत् ऐसी ही किसी रिक्तता में हैं. मैं भी तो हूँ ऐसी ही किसी खालीपन में सही गलत ढूंढ रहा. शायद यही वजह है कि विद्युत् मेरी स्मृतियों से नहीं गया.

उल्टे काग़ज़ की उल्टियाँ

कभी-कभी मुझे लगता है कि मुझे लिखना छोड़ देना चाहिए और ख़ुद को एक हारा हुआ इंसान मानकर मुझे बस अपने सरवाइवल के लिए लड़ना चाहिए। मुझे इस बात पर ध्यान देना चाहिए कि मैं कितना कमा रहा हूँ। पहले मैं ऐसा नहीं सोचता था, और मेरे ख़याल से शायद कभी किसी को ऐसे सोचना भी नहीं चाहिए। पर आजकल मुझे लग रहा है कि मैं शायद जीवन में न जाने क्या ही कर रहा हूँ। कुछ भी सही नहीं है। सबकुछ तितर-बितर सा है। ऐसा लग रहा है जैसे सबकुछ ख़त्म सा हो गया है।

मैंने इन दिनों लिखना छोड़ दिया है। मुझे लगने लगा है कि मेरे अंदर लेखक जैसी कोई बात नहीं है। बस कुछ एक जैसे अंत और प्रारूप वाली कहानियाँ लिख देने से कोई लेखक नहीं हो जाता है। जब भी मुझे लगता ही कि मैं अब एक लेखक नहीं रहा तब मैं हरुकी मुराकामी का कोई भी नया उपन्यास उठाता हूँ और उसे पढ़ना शुरू कर देता हूँ। मुराकामी के उपन्यास को पढ़कर लगने लगता है कि जैसे मेरे अंदर भी एक लेखक है और मैं भी कुछ बेहतरीन लिख सकता हूँ। मुराकामी को पढ़ते ही मेरे अंदर कहानियों के कई नए प्लॉट हिलोरे मारने लगते है। कई किरदार मेरे आँखों के सामने ठीक वैसे ही रक़्स करने लगते हैं जैसे सड़ चुकी लाशों में धीरे-धीरे कीड़े बिलबिलाने लगते हैं।

मेरे दिमाग़ में कई सारी कहानियाँ है जो बस इसलिए नहीं आ पाती क्यूँकि मैं उन कहानियों के बारे में सही ढंग से सोचता नहीं हूँ या फिर सोचना नहीं चाहता। एक लड़की जिसकी लाश कुछ दिनों पहले उसके छत पर पड़ी मिली थी वो अब भी इस इंतज़ार में है की मेरे द्वारा लिखा जाने वाला कोई किरदार उसके असली क़ातिल का पता लगाएगा और दुनिया के साथ -साथ उसे भी बताएगा कि उससे जीने का हक़ छिनने वाले शख़्स का चहरा कैसा दिखता है। मेरे उपन्यास की लड़की अभी भी मेरे उपन्यास के उन पन्नों का इतजार करती है जहाँ उसे इस बात का पता चल जाए की आखिर उसे मारा किसने।

मेरी एक कहानी में कुछ बिल्ली के बच्चे गुम है। वो कई दिनों से लापता हैं और उन्हें ढूँढने वाला कोई नहीं। किसी ने इस बात की फ़िक्र भी नहीं की कि वो बिल्ली के बच्चे आख़िर कहाँ गए। ये बिल्ली के बच्चे मुराकामी के किसी उपन्यास में गुम हो गए होंगे। उन्हें मुझसे उम्मीदें है की एक दिन मैं जब उनकी कहानी पूरी कर पाउँगा तो सभी को पता चल जाएगा की वो कहाँ गुम हैं। गुम हो जाने वाली बिल्लियों की तस्वीरें किसी दीवाल पर कैसी लगेंगी मैं इस कहानी को लिखकर महसूस करना चाहता हूँ।

मेरी एक कहानी में किरदार अब भी एक चाय की दुकान में बैठा चाय पी रहा है। मैंने उसे कहा था “अगर तुम्हारी बीवी तुमसे प्यार नहीं करती और वो शादी वाले दिन से ही कह रही है कि वो अपने प्रेमी से बहुत प्यार करती है और उसके साथ ही जीना चाहती है तो तुम्हें एक बार के लिए इसे इसके प्रेमी से मिलवा देना चाहिए और दोनों की शादी करा देनी चाहिए।” यह आदमी काफ़ी अच्छा था। इसने तुरंत ही मेरी बात मान ली और अपनी बीवी से तलाक़ लेकर उसने उसकी शादी उसके प्रेमी से करा दी। यह आदमी जानता है की उसके इस क़दम से उसके घरवाले उसके आस पास के लोग उसका जीना हराम कर देंगे लेकिन ये आराम से इस चाय की दुकान में चाय पी रहा है। इसे बस यह बात कचोट रही है की जब इसकी बीवी अपने प्रेमी के सच्चे प्यार के लिए उसे उससे तलाक़ लेनेपर मजबूर कर सकती है और अपनी बात कहने का हिम्मत रख सकती है तो क्या उसकी प्रेमिका को भी शादी के बाद अपने पति से ये सब कहना ज़रूरी नहीं था? उसे यह सब एक बार कहना ज़रूर चाहिए था। लेकिन इसकी प्रेमिका ने शादी के पांच दिन बाद ही शिमला के माल रोड पर अपनी पति के साथ खींची गयी तस्वीर के कैप्शन में लिखा था ” बेस्ट हबी” इन द वर्ल्ड। यह आदमी चाय पीते-पीते यह सोच रहा है कि क्या उसकी बीवी तलाक़ लेने के बाद उसके साथ खींची गयी शादी वाले दिन की तस्वीर के कैप्शन में यह लिखेगी “बेस्ट हबी इन द वर्ल्ड”।

मैं ऐसी कई कहानियाँ लिखना चाहता हूँ। मेरे पास ऐसी ऐसी कहानियाँ हैं। मेरे अंदर अवसाद का एक काला खंडहर है जिसके ताखों पर ऐसी ही कई कहानियों के पन्ने रखे गए हैं। समानांतर ब्रह्मांड जैसी कोई चीज़ होती होगी तो मेरी कई कहानियों के किरदार किसी न किसी ब्रह्मांड में ज़िंदा होंगे। शराब पी रहे होंगे, किसी से टूट के प्यार कर रहे होंगे या फिर किसी लाश को दफ़नाने के लिए किसी बारिश वाले दिन गिली मिट्टी पर फावड़े चला रहे होंगे। मैं अपने जीवन में बहुत सारी चीज़ें उस तरह से नहीं पाई जैसा मैं चाहता था लेकिन मैं अपनी कहानियों में वो सब ढूँढना चाहता हूँ वो सब पाना चाहता हूँ जो मैं अपनी असल ज़िंदगी में चाहता हूँ। मैं चाहता हूँ कि मैं उन बच्चों के बारे में लिखूँ जो जन्म लेने के कुछ ही दिनों के बाद गिनती करना सीख जाते हैं। मैं इन बच्चों के बारे में अपनी किसी एक कहानी में यह लिखना चाहता हूँ की यह बच्चे पिछले जन्म में अपनी प्रेमिकाओं के पीठ के तिल गिनते गिनते मार गए थे। मैं इन बच्चों के बारे में ऐसा लिखने के बाद कभी भी उनके माता-पिता से माफ़ी नहीं माँगूँगा। इसमें माफ़ी माँगने जैसी कोई बात है भी क्या?

तालाब की उस देवी ने मुझसे माफ़ी माँगी थी क्या? मैं जब लकड़ी काट रहा था और लकड़ी काटते-काटते जब मेरी लोहे की कुल्हाड़ी तालाब में गिरी तो कहानी के अनुसार तालाब से तालाब की देवी सोने की कुल्हाड़ी लेकर आई और उन्होंने पूछा की ये तुम्हारी कुल्हाड़ी है। मैंने ना कहा। वो फिर तालाब के अंदर गयी और दूसरी बार जब वो बाहर आयी तब उनके हाथ में चाँदी की कुल्हाड़ी थी। मैंने दूसरी बार भी कहा ये मेरी कुल्हाड़ी नहीं है। तालाब की देवी तीसरी बार पानी के अंदर गयी और तीसरी बार वो जब तालाब से बाहर आयी तब उनके हाथ में मेरी लोहे की कुल्हाड़ी थी। उन्होंने मुझे मेरी कुल्हाड़ी मुझे वापिस लौटा दी और मुझसे कहा की तुम बहुत ईमानदार हो। मैं ख़ुश हुआ। वो पानी के अंदर गयी और फिर कभी बाहर नहीं आइ। मैंने थोड़ा इंतज़ार किया। मुझे लगा शायद वो दुबारा वापिस आए और मुझसे कहें की मैं तुम्हारी ईमानदारी से ख़ुश हूँ। इतना कहकर वो मुझे चाँदी और सोने दोनों की कुल्हाड़ियाँ दे दे। और मैं ख़ुशी ख़ुशी अपने घर लौट आऊँ और अपनी प्रेमिका को चिट्ठी में लिखूँ की मैं गाँव वापिस आ रहा तुमसे शादी करने। शहर में मुझे नौकरी मिल गयी है। लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। तालाब की देवी वापिस नहीं आइ और कहीं किसी गाँव में एक लड़की ने तालाब में डूब कर अपनी जान दे दी। शायद, इसी तरह की लड़कियाँ मरने के बाद दुबारा जन्म लेना नहीं चाहतीं होंगी और उन्हें तालाब की देवी बना दिया जाता होगा। मुझसे किसी ने माफ़ी नहीं माँगी। ना ही उस लड़की ने ना ही तालाब की देवी ने। माफ़ी माँगना हमेशा ज़रूरी है क्या।

माफ़ी माँगना हमेशा ज़रूरी नहीं है। मैं पिछले एक घंटे से ये लिख रहा हूँ और अबतक मैंने बस ढाई सौ शब्द लिखें हैं। मैंने घड़ी से माफ़ी नहीं माँगी है। और मैं कभी माँगूँगा भी नहीं। मुझे लगता है की एक दिन घड़ी को दीवाल से नीचे उतरकर बाज़ार जाना चाहिए और एक जोड़ी अच्छे कपड़े में इंसान की शक्ल में मुझसे किसी बार या शराबखाने जैसी जगह पर मिलकर मुझसे माफ़ी माँगनी चाहिए। मैं सिर्फ़ दस मिनट लेट था और उनलोगों ने उस लड़की को तालाब से निकालकर किसी ख़ाली जगह में जला दिया था। घड़ी को उन दस मिनटों के लिए मुझसे माफ़ी माँगनी चाहिए और बदले में मुझे एक अच्छी शराब पिलानी चाहिए। पर क्या ऐसा मुमकिन है? है? बिलकुल नहीं। मैंने सत्ताईस सालों में अलग अलग दीवारों पर न जाने कितनी घड़ियों को दीवार पर चिपके देखा है। इनमें से कोई घड़ी कभी दीवार से नीचे उतरकर नहीं आई। घड़ियाँ कभी दीवाल से नीचे नहीं आती। ये बस अपनी जगह चिपकी-चिपकी अपने शरीर से वक़्त को ठीक उस तरह नीचे गिरा देती हैं जैसे साँप एक ख़ास समय के बाद अपनी केंचुलियाँ छोड़कर निकल जाते हैं। मेरी कहानियों के कई किरदार इसी तरह अपने सोशल मीडिया अकाउंट पर वक़्त की इन्हीं केंचुलियों के बारे में बात सोचते हुए फ़ीलिंग नॉस्टैल्जिक जैसे स्टेट्स डालते हैं।

बादलों के पाँव: संस्मरण

मुझे पता नहीं कि बाकी लोग इस बात से कितना सहमत हैं कि हम 90’s में जन्म लेने वाले लोगों का बचपन कितना तिलिस्मी और जादुई था। आज जब अभी ऐसा वक़्त चल रहा है जब हम अपने कमरे में बैठकर आसानी से नॉस्टैल्जिक होना अफ़्फोर्ड कर सकते हैं, तब हमें रह रहकर महसूस किया है कि हमने एक कितना शानदार दौर जिया है। एक बहुत ही बेहतरीन दौर को देखा है। कितनी यादें बनाई हैं।

मेरी याददाश्त अच्छी है। मैं अपने जीवन की काफी पुरानी यादों को अब भी अपने दिमाग के बॉयोस्कोप में अच्छे से देख सकता हूँ। मुझे याद है अपने पिता के कंधे पर बैठकर होली के लिए पिचकारी खरीदने जाना। मैं बचपन से ही अय्याश किस्म का था। 3 या 4 साल का रहा होगा जब होली के दिन बोतल में शरबत पीकर शराबियों जैसा अभिनय करता था। उस समय ऐसा अभिनय करने पर कोई अवार्ड नहीं मिलता था। घर आकर मां के हाथों पिटाई होती थी जिसमें एक थप्पड़ खाने से पहले ही पिता आकर बचा लेते थे। हम मां को आंखों ही आंखों में चिढ़ाते थे कि पापा हैं अभी मार के दिखाओ। जिसके उत्तर में मां भी आंखों आंखों में कहती कि पापा बस 5 6 दिन की छुट्टी पर हैं, उसके बाद हम हीं हैं।

वो पुराने दिन ऐसे थे जैसे मानों हम बच्चे अब भी इस दुनिया में आने का जश्न मना रहे हों। हाथों को मोटरसाइकिल बनाकर हम दुनिया भर की दूरी नाप लेना चाहते थे। वो पुराने दिन वैसे थे जब हम एक अभिनेता, वैज्ञानिक, सुपरहीरो सबकुछ हुआ करते थे।

मुझे याद है बचपन में जब भी जन्मदिन आता था हमें नए कपडे मिलते थे। बात तब की है जब उस समय मोहरा फ़िल्म नई नई रिलीज हुई थी। उस समय घर मे मौजूद ओनिडा ब्लैक एंड वाइट टीवी पर एटीएन नामक एक चैनल पर मोहरा फ़िल्म का ‘तू चीज बड़ी है मस्त-मस्त’ गाना खूब चलता था। मैं उस समय वैसा नहीं था कि मुझे रवीना टंडन से प्यार हो जाता हां लेकिन मुझे उस गाने में अक्षय कुमार के उस ड्रेस से प्यार हो गया था। मुझे याद है मैं उस ड्रेस के लिए घंटो रोया था। मेरे लिए शायद काले कपडे आये थे लेकिन वो माथे पर बांधने वाला साफा नहीं आया था जिसको पहन कर मैं उस फिल्म का अक्षय कुमार बनता। बाद में मां ने काले रंग के गमछे जैसे कपडे को मेरे सर पर बांध दिया था। मैं खुश हो गया था। उस दिन मैनें घण्टो अपने घर के आंगन में अक्षय कुमार जैसा डांस किया था। उस जमाने में अगर इंटरनेट होता तो मेरा वो डांस का वीडियो वायरल जरूर होता। क्यूट किड डांसिंग।

मैं उस समय इतना छोटा था कि मेरे बड़े भाई मुझे अपने साथ क्रिकेट नहीं खिलाते थे। इसलिए मैं अपने हमउम्र लड़को के साथ ड्रैगनफ्लाई पकड़ा करता था या फिर मुर्गियों के चूजे पकड़ने की कोशिश करता था। मुझे याद है एक बार एक मुर्गी ने मुझे इसी वजह से झपट्टा मारा था। जो बच्चे बचपन में हीं अपनी शरारत का सबक पा लेते थे वो आगे फिर वैसी शरारत नहीं करते थे। मैं भी फिर कभी मुर्गियों के चूजों के पीछे नहीं भागा। ये वो दौर था जब धनबाद झारखंड की जगह बिहार में ही था। मैं उस समय इतना छोटा था कि मुझे धनबाद में मुरलीडीह की जगह और कोई नाम याद नही था। वासेपुर शायद होगा उस समय पर मेरे जेहन में नहीं था।

धनबाद के बाद बचपन का एक नया दौर मुजफ्फरपुर में शुरू हुआ। मुजफ्फरपुर उस समय बिहार का एक बड़ा शहर था। वहां यूनिवर्सिटी थी। एक बहुत नामी कॉलेज हुआ करता था वहां। अच्छे स्कूल होते थे। ये बिगबबूल चबाकर कूल बनने वाला दौर था। बिग बबूल के स्टीकर जमाकर कलेक्टर बनने वाला दौर था। ये वो दौर था जब शायद 1 रुपये में पतंग का पूरा मांझा मिल जाता था। हालांकि 1 रुपये का मांझा खरीदना भी उस समय एक अमीरी थी। इसलिए मेरे बड़े भाई भात और पीसे हुए शीशे की सहायता से खुद मांझा बनाते थे। मेरा उस समय ये काम होता था कि मैं बस इस बात की निगरानी करता कि कहीं मां न आ जाये। ये वो दौर था जब आसमान नीला हुआ करता था और उस आसमान में मोहल्ले भर की पतंगे आसमान को चूम लेने की होड़ में होते थे। किसी भी पतंग के कटते ही नीचे पतंगबाजी देख रहे बच्चों का झुंड पतंगों के पीछे भागा करता था गोया की ये पतंग पतंग न हो बल्कि कोई टूटता तारा हो। कई बार पतंग लूटने के चक्कर में पतंगे फट जाती थी और फिर दो गुटों के बीच लड़ाई शुरू होती थी। लड़ाइयां अगर इतनी मासूम होती तो शायद कभी हथियारों का अविष्कार नहीं होता।

पतंगबाजी के अलावा उस दौर में एक और लग्जरी हुआ करती थी। उस लग्जरी का नाम wwf ट्रम्प कार्ड था। रैंक 1 ब्रेट हार्ट और गेम खत्म। याकुजुना, अब्दुल्लाह, लक्स लूजर, पापा सैनगों, टटांका, ब्रिटिश बुलडॉग ये कुछ नाम थे जो उस समय बहुत पोपलूलर थे। ये वो दौर था जब WWF, WWF हीं था WWE नहीं हुआ था। और उस समय हमें यह लगता था कि ये बिल्कुल सच है।

पतंगबाजी, ट्रम्प कार्ड, पौसम पा, रंग रंग तुझे कौन सी पसंद, छुआ छूत, ड़ेंगा पानी, जंजीर, विष अमृत, घर घर इत्यादि खेल उस समय बहुत लोकप्रिय थे। जेंडर सेंसिटिविटी और जेंडर डिफरेंस का फर्क उस समय हल्का हल्का हमें समझ आने लगा था। शायद इसलिए हम कई बार उन लड़कों को अपने ग्रुप से निकाल देते थे जो अपनी बहनों के साथ छत पर स्टपो या कीतकित जैसे खेल खेलते थे। हालांकि जब दो तीन बार मैं छत पर अपने घर के बगल वाली लड़की के साथ घर घर खेलते हुए पकड़ा गया तब मैनें सबको कहा था कि सब समान होते हैं। कितकित खेलने से कोई लड़की थोड़े ही हो जाता है। फिर हम सब मिलकर कितकित खेलते।

वो दौर, वो दौर था जब दुनिया घर के 1 किलोमीटर के अंदर तक ही थी। उस से बाहर की दुनिया हमने कभी अकेले एक्सप्लोर नहीं कि थे। हम छोटे थे और उस समय स्कूल नहीं जाते थे। घर पर भी नहीं पढ़ते थे। वो दौर बस खेलने और दुनिया को समझने वाला था। एक बार मुझसे कुछ बड़े लड़के ने बोला कि चलो मेरा स्कूल देख लो। घूम कर आते हैं। मैं और मेरा छोटा भाई उसके साथ चल दिये। वो रास्ते भर हमें वापिस लौटने का रूट समझा रहा था। हम उसके स्कूल गए। स्कूल के सामने वाले बूढ़े बाबा के दुकान से 1 रुपये का स्तरफ्रूट खाया और वापिस अपने घर को आने लगे। हम बच्चे थे और हम खो गए। बचपन में गुमशुदा हो जाने का खौफ क्या होता है ये एक गुम शुदा बच्चा ही समझता है। हमने कई रास्ते अपनाए लेकिन घर पहुंचने की जगह घर से दूर होते गए। उस दौर में ना ही मोबाइल थे ना ही पब्लिक फोन का उतना चलन था। हम थकहारकर सड़क किनारे बैठ गए और रोने लगे। हमें अपने घर का पता नाम से नहीं पता था। हम बस इतना बताते रहें कि हमारे घर के सामने लीची का एक बहुत बड़ा बागान है, घर के दूसरी तरफ मियां टोली है और सनपीटल (सेंट पीटर्स) स्कूल भी नजदीक है। यह जानकारी हमें घर पहुंचाने के लिए अपर्याप थी। किसी ने पिता का नाम पूछा। हमने झट से बताया। किसी ने पूछा कि पिताजी क्या करते हैं “हमने बताया पुलिस हैं। तब सबको समझ आया हम लोग सिपाही जी के लड़के हैं। हमें उनमें से किसी एक ने घर पहुंचा दिया। हम बहुत खुश थे। हमें उस दिन लगा था कि शायद हम वापस कभी घर नहीं पहुंच पाएंगे लेकिन हम घर पहुंचे। घर मे सब परेशान थे। पूरे मोहल्ले में खबर फैल गयी थी कि हम दोनों खो गए हैं। ये वो दौर था जब बिहार में किडनैपिंग अपने चरम पर था। पर हम किडनैप नहीं हुए थे हम बस अपने बचपन को एक्सप्लोर करने के चक्कर में भटक गए थे। उस दिन हमें इस बात का महत्व पता चला कि छोटे बच्चों को सबसे पहले मां-बाप का नाम क्यों याद करवाया जाता है।

उस दिन पहली बार किसी और के स्कूल जाकर मन में अपने स्कूल जाने की बात उठी थी। यूँ मैं अव्वल दर्जे का आवारा और शैतानी करने वाला बच्चा था और मेरी हरकतों से जरा सा भी नहीं लगता था कि मैं पढ़ाई लिखाई में थोड़ी सी भी रुचि रखूंगा। उस दिन मुझे स्कूल जाने में एक आकर्षण दिखा था। मैनें सोचा था कि मैं रोज स्कूल जाऊंगा और स्कूल के बाहर के दुकान से तरह तरह के खाने वाले चीजें खरीदूंगा। मैंने अक्सर देखा था कि मेरे अगल बगल स्कूल जाने वाले बच्चों को रोजाना स्कूल जाने से पहले खर्च के लिए पैसे मिलते थे। बस देखा देखी मेरा भी एक नर्सरी स्कूल में दाखिला हो गया था। मैं बच्चों की उन दुर्लभ प्रजातियों में से था जो स्कूल के पहले दिन काफी उत्साहित हुआ करते हैं। पहला दिन स्कूल में 5 घण्टे बिताने के बाद मुझे लगा स्कूल जाने का फैसला बहुत गलत था। उस दौर में प्ले स्कूल का कांसेप्ट ज्यादा चलन में नही था। मेरा एडमिशन नर्सरी क्लास में हुआ था। और यहां पढ़ाई आज के प्ले स्कूल्स की तरह इंटरैक्टिव और फन बेस्ड लर्निंग जैसा नहीं था। और तो और यहां जो मेरी मिस थी देखने मे तो बहुत विनम्र लगती थी लेकिन एक नंबर की निष्ठुर थी। मिस की निष्ठुरता और घर से दूरी ने मुझे एक दिन में अहसास दिला दिया कि स्कूल जाना कितना कठिन और चुनौतीपूर्ण कार्य है।

उस दिन के बाद से मेरे जीवन मे स्कूल न जाने के बहाने बनाने सोचने वाला अध्याय शुरू हो गया। मैं रोज सुबह उठकर स्कूल न जाने के बहाने बनाता और रोज सुबह पहले तो मुझे कई तरह के प्रलोभन देकर स्कूल जाने के लिए मनाया जाता फिर मेरे भाई मुझे जबरदस्ती स्कूल ले जाते। मैं रोते रोते स्कूल के बस्ते से ज्यादा भारी टिफिन लिए स्कूल पहुंचता। उस समय आज की तरह ऐसा नहीं था कि शिक्षक बच्चों पर हाथ उठाने से डरते या झिझकते थे। आलम यह था कि खुद घरवाले शिक्षकों को यह कहते जाते कि “सर अगर बदमाशी कीजिये तो वहीं सूत दीजियेगा”। घरवालों के सामने तो शिक्षक मुस्कुराते हुए कहते कि “अरे अभी तो ये बच्चा है इसको क्या मारेंगे।” लेकिन क्लास में अगर सुलेख लिखने में गलती हो जाती तो दोनों अंगुलियों के बीच पेंसिल दबा के अपने आप को नाज़ी समझते थे।

हमारे दौर वैसा नहीं था जब बच्चे स्कूल से मार खा कर आते थे तो घर में माता-पिता परेशान हो जाते. ये आम बात थी. समाज ने शिक्षकों के बारे में कहीं जाने वाली इस बात को की की शिक्षक एक कुम्हार होता है जो मिट्टी के बर्तन सरीखे विद्यार्थियों को सही आकर में लाने के लिए उन्हें थोड़ा बहुत पीट भी देता है. उस दौर में ऐसा था भी. 2-3 शिक्षकों के अलावा बाकी सारे शिक्षक अच्छे थे. चूँकि मैं एक बहुत ही उदंड बच्चा था तो पिटता बहुत था. ऐसा कोई दिन नहीं होता की जब स्कूल में मुझे सजा नहीं मिलती. कभी होमवर्क न बनाने की सजा, कभी शिक्षक का चश्मा तोड़ देने के लिए सजा, कभी लड़कियों को बीच क्लास में पीट देने की सजा. इत्यादि. वैसे मैं कोई बुली करने वाला छात्र नहीं था लेकिन बचपन से ही स्कूल में एक बात समझ में आ गयी थी की ये दुनिया वाकई में बहुत बुरी है. अगर आप अपने लिए नहीं लड़ोगे तो आपके लिए कोई नहीं लड़ेगा.

स्कूल के पहले दिन जब मैं उस स्कूल में नया नया आया था. वो अमीर बच्चों का स्कूल था और मैं एकलौता ऐसा लड़का था जो निम्न मध्यम वर्गीय परिवार से आया था बिना किसी चैरिटी वाले कोटे से. मुझे पहले दिन किसी ने बैठने को जगह नहीं दी. मैं पहली बेंच पर गया तो एक मोटे से गोरे से लड़के ने कहा यहाँ ‘राजीव, बैठता है. अगली सीट पर किसी ने कहा यहाँ मनोज बैठता है. इसी तरह मैं कई बेंचेज पर अपना बैग रखने गया लेकिन मुझे कहीं भी जगह नहीं मिली. अंत में सबसे पीछे एक खाली सा बेंच था जिसपर जमी धुल देखकर मुझे यह अंदाजा लगा की यहाँ शायद कोई नहीं बैठता होगा. मैनें अपना बैग वहां रख दिया. मैं आदर से काफी सहम सा गया था और शायद रो देने वाला था लेकिन उस आखिरी बेच को देखकर मेरी उम्मीद जगी थी और मैंने वहां अपना बैग रख दिया था. बैग रखने के कुछ देर बाद एक लड़की आई और उसने चिल्लाते हुए आवाज में कहाँ कि वहां किस से पूछ कर बैठे कहीं और बैठ जाओ. वहां हम सब अपना लंच रखते हैं. उस लड़की की चिल्लाती आवाज और आस पास के बच्चों की भीड़. इन सब से मैं बहुत डर गया था. मेरी उम्र बहुत छोटी थी लेकिन मुझे लग रहा था की मेरे साथ अत्याचार हो रहा है. और यह गलत है. मैं अपने मोहल्ले के बच्चों के बीच हीरो था. और मुझे लगा की आज स्कूल का यह पहला दिन ही तय करेगा की मैं आगे के दिनों में हीरो की तरह रहूंगा या फिर फिल्म के किसी उपेक्षित साइड रोल वाले किरदार की तरह. वैसे मैं लड़कियों पर हाथ नहीं उठाता. लेकिन एकता मेरे जीवन की पहली लड़की थी जिसपर मैंने हाथ उठाया. मेरा एक थप्पड़ और एकता का रौद्र रूप एकाएक निरुपमा रॉय जैसा हो गया. वो दहाड़े मारकर रोने लगी. उसके मुंह से शायद खून भी आ गया था. पहले दिन ही मुझे प्रिंसिपल ऑफिस जाना पड़ा. कम्प्लेन हुई. उस लड़की के माता पिता आये. उन्होंने मुझे राक्षस कहा. लेकिन मैं चुप रहा. बात मेरे पहले दिन ही स्कूल से निकाल दिए जाने की हो रही थी लेकिन एकता जैसी लड़की थी उस लिहाज से सभी को इस बात का अंदाजा था की एकता ने भी कुछ ऐसा किया होगा जिस से यह नौबत आई. कुछ दिनों बाद मामला रफा दफा हो गया. उस दिन के बाद मुझे फिर कभी किसी ने मजाक में भी कुछ बोलने की हिम्मत नहीं कि. बाद में मैं भी उन लोगों के बीच काफी अच्छे से घुल मिल गया.

ये शायद वो दौर था जब इंग्लैंड में 1999 का क्रिकेट वर्ल्ड कप खेला जाने वाला था. उस समय ब्रितानिया कंपनी ने एक ऑफर निकाला था की ब्रिटानिया बिस्कुट खरीदो रैपर पर दिए गए रन को इकठ्ठा करो और इंग्लैंड जाओ. मेरा सपना उस समय इंग्लैंड जाने का नहीं था मैं बस चाहता था की मुझे 100 रन इकठ्ठा कर कई सारे क्रिकेट बुकलेट जमा करूँ. मुझे बचपन से ही चीजें जमा करने का शौक था. मैं माचिस के अलग अलग रैपर जमा करता था. उस समय सबसे पोपुलर माचिस चीफ हुआ करती थी जिसमें एक रेड इंडियन की तस्वीर बनी होती थी. उसके अलावा मेरे गाँव के तरफ किसान नामक माचिस चलती थी. मैं इन दो माचिसों के अलावा जितने भी अलग नाम के माचिस मिलते उनके रैपर इकठ्ठा करता. बिग बबूल के अन्दर मिलने वाले कॉमिक स्ट्रिप को इकठ्ठा करता, अलग अलग रंग के पत्थर, पक्षियों के पंख, पत्ते, तितलियों के पंख. इन चीजों का मेरे पास अपना एक संग्रहालय था जो मैं एक डिब्बे में अपने सीढ़ी वाले रूम में छिपाकर रखता था. इसी डिब्बे में मैं चाहता था की ढेर सारे क्रिकेट बुकलेट रखूं इसलिए मैं ब्रितानिया बिस्किट के रैपर भी इकठ्ठा करता था. उस समय घर में कभी कभी ही कोई महंगा बिस्कुट आता था. टाइगर बिस्कुट जो उस समय तीन रुपये में आती थी उसमें सिर्फ 5 रन मिलते थे. मिल्क बिकिस में 10 रन. ब्रितानिया के महंगे बिस्कुट के रैपर में ज्यादा अंक मिलते थे ऐसे रैपर मेरे सहयोगी लाकर देते थे.

बचपन में मेरे सहयोगी हमारे पुलिस कालोनी के मेस में काम करने वाले कूक के 2 बेटे हुआ करते थे. मुझे बचपन में इस बात का अंदाजा दिला दिया गया था की ये गरीब हैं और बदमाश बच्चे हैं इनके साथ खेलना सही नहीं है. लेकिन मैं इन्हीं के साथ खेला करता था क्यूंकि मैं भी बदमाश बच्चों में से एक था और खूब गालियाँ भी देता था. यही मेरे सहयोगी मेरे लिए बिस्किट के रैपर इकठ्ठा करते थे. मैंने कई बार सौ रन इकठ्ठा किये लेकिन मुझे कभी भी कुछ अच्छा इनाम नहीं मिला. मैं आगे और प्रयास करता लेकिन एक दिन मेरे मोहल्ले की बर्ड हॉक आंटी ने मुझे कूड़े के ढेर से बिस्किट का रैपर निकलते देख लिया और मेरी मां से शिकायत कर दी. दुनिया के हर मोहल्ले में एक आंटी ऐसी होती हैं जिनका काम बस शिकायत करना होता है. यह आंटी भी ऐसी ही थी. इनका मुख्य काम अपनी बालकनी में बैठकर बस आसपास देखना और सुनना होता है कि क्या चल रहा. ऐसी ही आंटियों के पास किसी के किसी के साथ अफेयर होने की, या किसका लड़का सिगरेट पी रहा या किसका लड़का या लड़की मैट्रिक में फेल या पास हो रहा जैसी ख़बरें सबसे पहले पहुँचती थी. इन आंटी के वजह से मेरा रन इकठ्ठा करने वाला अभियान रुक गया वरना मुझे उम्मीद थी की मैं इंग्लैंड जाकर अजय जडेजा और अजहरुद्दीन को बैटिंग करते देखूंगा. मुझे उस समय सबसे बेहतरीन खिलाड़ी अजय जडेजा और मोहम्मद अजहरुदीन बहुत पसंद थे. सचिन तेंदुलकर मुझे उस समय उतने पसंद नहीं थे.

मैं क्रिकेट का एक अछा खिलाड़ी तो नहीं था लेकिन उस दौर में मुझे क्रिकेट काफी पसंद था. ज्यादातर क्रिकेट खिलाड़ी. क्रिकेट सम्राट जैसे पत्रिकाओं की वजह से मुझे काफी खिलाड़ियों के नाम पता था. इंडिया के खिलाडियों के अलावा विदेशी खिलाडियों के भी. विदेशी खिलाडियों में मुझे हमेशा से एंडी फ्लावर पसंद था . क्यूंकि मुझे उस समय लगता की ज़िम्बाब्वे सबसे कमजोर टीम है और इस टीम को आगे बस एंडी फ्लावर ही बढ़ा सकता है. मुझे बचपन से ही ज़िम्बाब्वे, केन्या जैसी टीम्स के प्रति काफी सहानूभूति रहती थी. आगे जाकर इसी कारण मेरे पसंदीदा बल्लेबाजों में कनाडा के जॉन डेविडसन का नाम आया. जब २००३ के विश्व कप में जॉन ने सबसे तेज शतक लगाया था तब भारत में शायद ही मुझसे ज्यादा कोई खुश व्यक्ति होगा. ऐसी ही ख़ुशी मुझे बहुत दिनों बाद 2015 के वर्ल्ड कप में मिली थी जब आयरिश बल्लेबाज केविन ओ ब्रायन ने शतक मारकर इंग्लैंड के खिलाफ 300+ के स्कोर को चेज करते हुए जीत दिलाई थी.

बचपन में क्रिकेट के अलावा जो सबसे ज्यादा पसंदीदा चीज थी वो थी किताबें. किताबें, कोर्स की किताबें नहीं. पत्रिकाएं, कहानियों की किताबें. बालहंस, नंदन, चम्पक, चन्दामामा, राज कॉमिक्स, डायमंड कॉमिक्स. क्लास 2-3 से ही मैं किताबें पढने लगा था. शायद यही वजह थी की आगे बहुत दूर जाकर मुझे भविष्य में लिखने का शौक हुआ. बचपन में घर में हर हफ्ते दो हफ्ते राज कोमिस के नए कॉमिक्स के सेट आते. मेरे बड़े भैया और भी कई तरह की मैगजीन मंगाते थे जो अंग्रेजी में होते थे जैसे रीडर्स डाइजेस्ट, आउटलुक, इंडिया टुडे, लाइफ. मैं इन मैगजींस के बस चित्र देखता था. लेकिन चित्र देख देख कर भी काफी कुछ समझ आने लगता था. हिंदी में भी कुछ पत्रिकाएं आती थी. जैसे कादम्बिनी, हंस, वागर्थ, मनोरमा, सरिता इत्यादि. मनोरमा और सरिता हमेशा जाड़े के मौसम में आती थी घर पर. क्यूंकि शायद इसी समय उनमें स्वेटर के डिजाईन आते थे. यह पत्रिकाएं सिर्फ माँ के स्वेटर बुनने के शौक की वजह से आती थी लेकिन मैं इन किताबों को भी पढता था. और आने वाले समय में लड़कियों के विषय में कई सारी अनोखी और तिलिस्मी बातें मुझें इन्हीं किताबों के माध्यम से पता चलीं. हालांकि, इन किताबों में रूचि बाद में ज्यादा बढ़ी लेकिन शुरुआती दौर में चम्पक, नन्हे सम्राट, बालहंस, नंदन जैसी पत्रिकाओं को पढ़कर बीता. आजकल टीवी पर एक कार्टून आता है चाचा भतीजा. यह कार्टून नन्हे सम्राट में छपने वाले एक कोमिक स्ट्रिप जूनियर जेम्स बांड पर ही आधारित है. नन्हे सम्राट में ही छपने वाले कहानी सीरीज शहजादा सलीम के माध्यम से बचपन से ही तिलिस्म और फंतासी की दुनिया वाली कहानियों से सामना हुआ.

आज भी जब कभी लिखने और पढने के बारे में सोचता हूँ तो बचपन में पढ़ी इन्हीं किताबों पर ध्यान जाता है. अब लगता है की शायद अगर बचपन में यह सब ना पढ़ा होता तो व्यक्तित्व काफी अधूरा होता. कई चीजें नहीं समझ पाता. इसलिए मैं इस बात पर बहुत पर यकीन करता हूँ की हम सभी को आने वाले समय में जब हम माता-पिता बनेंगे तो अपने बच्चों को किताबें पढने के लिए जरुर प्रेरित करेंगे. हाँ, हमारे समय यह बहुत ही कठिन होगा लेकिन कोशिश तो की जा सकती है. किताबें, कहानियां हमें घर बैठें एक नयी दुनिया में ले जाती हैं. फिल्मों में शायद वो बात नहीं होती. फ़िल्में भी कहानियों का रूप होती हैं लेकिन मेरा निजी ख्याल यह है कि मुझे फिल्मेमों में कहानियां देखने से किताबों में कहानियां पढ़ना ज्यादा अच्छा लगा. जब भी किताब में लिखा होता की भोलू शरारती बच्चा है तो मैं अपने दिमाग में खुद से भोलू का चित्र बनाने लगता. मैं अपने आस पास के बच्चों में भोलू को ढूंढता. यह अलग बात है की बाद में मुझे पता चलता कि अरे ये भोलू तो मैं ही हूँ.

क्रमशः

“रोहित अग्रवाल (12C), निहारिका कक्कर (11A) की लेता है”

“रोहित अग्रवाल (12C), निहारिका कक्कर (11A) की लेता है”
स्कूल के टॉयलेट के दीवारों पर परमानेंट मार्कर की सहायता से बेरहमी से उकेरे गए ये शब्द मेरे जीवन के सबसे घिनौने, डरावने और खतरनाक शब्दों में से एक थे. उस दिन मैं क्लास में बहुत शांत रहा. रोज की तरह आज मैंने अकाउंट्स के टीचर की पतली आवाज की नक़ल नहीं उतारी और नाही निहारिका की तरफ मुड़कर देखा, उस दिन मैं घर लौटते वक्त रोज की तरह ‘निहारिका गेम पार्लर” में जाकर जी.टी.ए वाईस सिटी भी नहीं खेला, आज से पहले कभी ऐसा नहीं हुआ था की मैं उस दूकान में न गया हो, मुझे गेम से ज्यादा लगाव गेम पार्लर के नाम से था. वो दिन बहुत भारी सा बीता. हर वक्त दिमाग में वही शब्द, किसी कर्कश आवाज की तरह शोर मचा रहे थे. धीरे धीरे ये शब्द दृश्यों में बदलने लगें.उस दिन हर चैनल पर एक ही बात फ्लैश कर रही थी “रोहित अग्रवाल (12C), निहारिका कक्कर (11A) की लेता है”मैं चैनल पर चैनल बदलता जा रहा था पर दिमाग पर रोहित अग्रवाल और निहारिका कक्कर ही सवार थे 

*(नहीं, निहारिका कक्कर रोहित अग्रवाल पर सवार थी)

उस दिन के बाद से मैंने कभी टी.वी नहीं देखी, शायद इसलिए क्यूंकि मैंने उस दिन घर में मौजूद एकलौती टी.वी को तोड़ दिया था या फिर इसलिए की मुझे हर चैनल पर रोहित अग्रवाल और निहारिका कक्कर ही दिखाई दे रहे थे.उस दिन मैंने ४ साल के टिंकू को सिर्फ इसलिए एक थप्पड़ मार दिया क्यूंकि वो मुझसे फाईव स्टार खिलाने की जिद कर रहा था. यूँ मुझे बच्चे हद से ज्यादा पसंद है और इसी वजह से आस पड़ोस के बच्चे भी मुझमे जादा रूचि रखते हैं पर उस दिन ना जाने क्यूँ मैंने उस बच्चे को एक थप्पड़ मारा, शायद इसलिए क्यूंकि उसका नाम टिंकू उर्फ तिलक अग्रवाल था.


उस दिन इस घटना के बाद मुझे लगा की मैं एक बुरा इंसान बन चूका हूँ. मेरे जेहन में बुरे इंसान की जो छवि थी उसके अनुसार बुरा आदमी बनने के लिए शराब पीना, लंबी दाढ़ी रखना और गाली देना अनिवार्य था. उस समय मैं सिर्फ 16 का था, और मेरे चेहरे पर दाढ़ी के नाम पर सिर्फ कुछ रेशमी बाल ही उगे थे. उस दिन मैंने पूरी तरह से बुरा आदमी बनने के लिए सबसे पहले पापा की शेविंग किट चुराकर शेविंग की, मैंने कहीं सुन रक्खा था की शेविंग करने से जल्दी दाढ़ी आती है और फिर पापा के ही वैलेट से पैसे चुराए और शराब पी. उस दिन मैंने बेवजह अपने मकान मालिक को “भैन्चो” कहा. 

*(बेवजह नहीं, मुझे बुरा आदमी बनना था और उसके लिए गाली देना जरूरी था) 
उस दिन मैं सड़कों पर बेतहाशा घूमता रहा. उस दिन ऐसा पहली बार हुआ जब मैं रात के सात बजे घर में ना होकर घर से बाहर  8 किलोमीटर दूर श्याम टाकीज के सामने वाली सड़क पर आवारागर्दी कर रहा था. उस दिन मैं अपने आप को किसी आर्ट फिल्म के नायक की तरह समझ रहा था और मुझे एकबारगी ये लगा की मैं आज जो कुछ भी कर रहा हूँ हकीकत में नहीं कर रहा बल्कि किसी फिल्म की शूटिंग कर रहा हूँ. मैं उस समय यह सोच रहा था की एक 11A की लड़की का एक 12C के लड़के से क्या लेना देना हो सकता है. और आज जिसने भी टॉयलेट के दीवार पर निहारिका कक्कर के बारे में जो कुछ लिखा है वो बदले की भावना से लिखा होगा, ये भी सकता है की उस लड़के ने निहारिका कक्कर को प्रोपोज किया हो और उसके ठुकराने पर लड़के ने अपना गुस्सा टॉयलेट के दीवार पर निहारिका के बारे में उलूल जुलूल लिखकर उतारा हो. मैं यह सोचकर थोड़ा आस्वश्त हुआ ही था की मन में एक और ख्याल आया की उस लड़के ने रोहित अग्रवाल का ही नाम क्यूँ लिखा? 

ये सवाल मेरे जेहन में एक जिद्दी जोंक की तरह चिपक गया. मुझे लगा की आज मुझे किसी आर्ट फिल्म के नायक की बजाये किसी जासूसी फिल्म के नायक की तरह सोचना चाहिए और जल्द से जल्द मुझे इस टॉयलेट वाली घटना के तह तक पहुंचना चाहिए. टॉयलेट वाली घटना के नाम से मुझे याद आया की मुझे जोर की पेशाब लगी है इसलिए श्याम टाकीज के पीछे वाली दीवार के सामने पेशाब करने लगा. उस दीवार पर साफ़ अक्षरों में लिखा था “देखो, गधा मुत रहा है” पर ना जाने मुझे ऐसा क्यूँ लगा की यहाँ भी किसी ने लिख दिया है की “रोहित अग्रवाल (12C), निहारिका कक्कर (11A) की लेता है “.

मैं उस समय अपने पेशाब से उस दीवार पर लिखे इस घिनौने वाक्य को मिटाने की कोशिश करने लगा पर मैं सफल न हो सका. उस दिन मैंने गुस्से में आकर श्याम टाकीज के आसपास जितने भी (A) सर्टिफिकेट वाले फिल्मों के पोस्टर थे फाड़ डाले. “अकेली रात” से लेकर “मचलती हसीना” तक जितने भी फिल्म के पोस्टर थे उनमे मुझे दो ही लोग दिखाई दे रहे थे. रोहित अग्रवाल और निहारिका कक्कर. उस समय मुझे लगा की मैं यहाँ दो पल और रुका तो मैं या तो पागल हो जाऊंगा या फिर सिनेमा हॉल के कर्मचारी मेरी पिटाई कर देंगे, इसलिए मैं वहाँ से चला गया.

अगले दिन हिंदी की परीक्षा थी इसलिए मैं हिंदी व्याकरण की किताब खरीदने किताबों के बाजार गया और वहाँ एक दूकान से किताब खरीदी.जब मैं दुकानदार को पैसे देकर पीछे मुड़ा ही था की मेरी नजर दूकान के नाम पर पडी मैं किताब को दुकानदार के मूह पर मारकर भागने लगा. मेरी इस हरकत से आश्चर्यचकित और गुस्साए ‘रोहित बुक डिपो’  के उस दुकानदार से उस दिन मुझे “भैन्चो” के अलावा और भी गालियों के बारे में जानकारी मिली. 


उस दिन पहली बार घर पर मेरी जमकर पिटाई हुयी और इन सब का जिम्मेदार था “रोहित अग्रवाल 12C”. मन ही मन उस समय मैंने रोहित अग्रवाल को बहुत गालियाँ दी और उस से बदला लेने की सोच ली. उस रात मैंने एक अजीब सपना देखा. सपने में मैं परीक्षा हॉल में बैठा था. और मेरे सामने हिंदी का प्रश्न पत्र था, मैं नौवे सवाल का उत्तर लिख रहा था, जिसमे “लेना” शब्द को क्रिया के रूप में वाक्य में प्रयोग करना था. मैंने इस सवाल के उत्तर में ये लिखा “रोहित अग्रवाल (12C), निहारिका कक्कर (11A) की लेता है “. मेरे ऐसा लिखने से मुझे स्कूल से निकाल दिया गया और निहारिका कक्कर को जब ये बात पता चली तो उसने मुझे एक थप्पड़ भी मारा और धमकी दी की रोहित अग्रवाल से कहकर वो मेरी टांगें तुडवा देगी. उसका इतना कहना ही मेरे लिए बिजली के करंट के सामान था, और इस करंट से मेरा सपना टूट गया. अगर निहारिका कक्कर ने सपने में मेरी रोहित अग्रवाल से तंग तुडवाने वाली बात ना कही होती तो शायद मेरा सपना कुछ देर और चलता और मैं अंत में रोहित अग्रवाल को मार डालता.


अगले दिन सुबह स्कूल जाते वक्त मैंने रास्ते में एक दूकान से एक परमानेंट मार्कर और एक नेलपोलिश रिमूवर की शीशी खरीदी और स्कूल की तरफ चल पड़ा. उस समय मैं अपने आप को हिंदी सिनेमा के उस नायक की तरह महसूस कर रहा था जो फिल्म के अंतिम सीन में, फिल्म के विलेन से बदला लेता है. उस दिन मैं जब स्कूल गया तो हर बार की तरह क्लास में ना जाकर मैं सीधे स्कूल के टॉयलेट में गया और जिस जगह पर “रोहित अग्रवाल (12C), निहारिका कक्कर (11A) की लेता है “ लिखा था उस को पेर्मानेट मार्कर की मदद से काटा और फिर नेलपॉलिश रीमुवर से मिटा दिया.

मैं थोड़ी देर वहीँ खडा रहा और फिर सोचा की मुझे रोहित अग्रवाल के बहन सीमा अग्रवाल के बारे में कुछ उलूल जुलूल लिख देना चाहिए पर फिर दिमाग में ये ख्याल आया की फिल्मो में हीरो किसी की माँ बहन के बारे में कुछ उलटा सीधा नहीं बोलते है या करते है चाहे वो विलेन की माँ बहन ही क्यूँ ना हो. मैं यह सोचकर टॉयलेट से बाहर चला आया. और क्लास की तरफ चलता बना. टॉयलेट और क्लास के बीच के रास्ते को तय करते समय मेरे जेहन में ये ख्याल आ रहे थे की क्या मेरा मकसद पूरा हो गया, क्या मेरा बदला पूरा हो गया? मेरे अंदर का कमजोर इंसान कहता की “हाँ अब बात यहीं खत्म हो जाये तो ठीक है, ऐसे भी मार पीट में क्या रक्खा है, इन छोटी छोटी बातों पर मार पीट हम जैसो लोगो को शोभा नहीं देती” लेकिन मेरे अंदर किसी कोने में बसे सुनील शेट्टी को यह मंजूर नहीं था, उसके हिसाब से अभी असली गुनाहगार का पता लगाना बाकी था, उस को उसके किये की सजा मिलनी बाकी थी.मेरे मन के अंदर चल रहे इस युद्ध में जीत मेरे अंदर बसे कमजोर इंसान की ही हुयी. ये कहना सही रहेगा की मैंने जबरदस्ती अपने अंदर बसे कमजोर इंसान को जीताया, क्यूंकि मेरे दुबले पतले शरीर का रोहित अग्रवाल के लंबे चौड़े शरीर से कोई मुकाबला नहीं था, और मैं नहीं चाहता था की मुझे निहारिका कक्कर रोहित अग्रवाल से हारता हुआ देखे.

इन्ही बातों पर विचार विमर्श करते करते मैं कब क्लास में चला आया पता ना चला. क्लास में घुसते ही मैं अपना सीट ढूँढने लगा, और तब मेरी खुशी का कोई ठिकाना नहीं रहा जब मुझे पता चला की मेरे सीट के बगल में निहारिका कक्कर का सीट है. उस दिन निहारिका कक्कर मेकअप करके आये थी इसलिए और दिनों के मुकाबले ज्यादा खूबसूरत लग रही थी.मैं ही मन बहुत खुश हो रहा था और भगवान का शुक्रिया अदा कर रहा था. उस समय मुझे लग रहा था की अब सब कुछ ठीक हो गया और हर हिंदी फिल्म की तरह मेरी कहानी का भी अंत सुखान्त होगा.
उस दिन कहानी में ट्विस्ट तब आया जब मैंने देखा की निहारिका कक्कर प्रश्न सात (अ) के उत्तर में रोहित अग्रवाल का नाम लिख रही है. प्रश्न सात (अ) में“आँखों का तारा” नामक मुहावरे का वाक्य में प्रयोग करना था और जिसके उत्तर में निहारिका कक्कर ने लिखा “रोहित अग्रवाल मेरी आँखों का तारा है”………ये पढ़ने के बाद मेरी कलम रुकी की रुकी रह गयी, मैंने निहारिका कक्कर को हिकारत भरी नजरो से देखते हुए दबी आवाज में एक भद्दी गाली दी, वो गाली बहुत ही प्रचलित गाली थी जो प्रायः लड़के उन लड़कियों को देते थे जो उनका दिल तोड़ देती थी या फिर जिनसे उनका सम्बन्ध विच्छेद हो जाता था….उस दिन मैंने अपना पेपर अधूरा ही छोड़ दिया और समय से पहले क्लास से बाहर आ गया. क्लास से बाहर निकलते समय मैंने दुबारा निहारिका कक्कर को देखा जो मेरे समय से पहले जाने के कारण आश्चर्यचकित  थी. मैं क्लास से निकल कर सीधा टॉयलेट की तरफ गया और पेशाब करने लगा. मैंने किसी फिल्म में परेश रावल को यह कहते सुना था की जब आदमी को गुस्सा आये तो उसे मूत लेना चाहिए, इस से गुस्सा शांत हो जाता है. पेशाब करने के बाद भी मेरा गुस्सा शांत नहीं हुआ और इसलिए मैंने परेश रावल को भी मन ही मन गाली दी.

उस दिन मैं बहुत दुखी और अपमानित सा महसूस कर रहा था, मैंने उस दिन मन ही मन ये भी कसम खाई की मैं अब से अपनी तुलना किसी हीरो के साथ नहीं करूँगा. रह रह मेरे दिमाग में निहारिका कक्कर की बाते गूँज रही थी.
“मेरा होमवर्क बना दो ना, प्लीज”“क्या तुम मेरा अकाउंट्स का असायीन्मेंट बना दोगे” “तुम मेरे सबसे अछे दोस्त हो”
पहले मुझे लगता था की निहारिका कक्कर सिर्फ मुझ पर लाइन मारती है और मुझ पर ही सबसे ज्यादा भरोसा करती है तभी तो वो हर काम में मुझे ढूंढती है और वो तो मुझे ही सबसे अच्छा दोस्त मानती  है. मैंने किसी फिल्म में नायक को यह कहते सुना थे की दोस्ती, प्यार की पहली सीढ़ी होती है. बस मैं यहीं धोखा खा गया.

उस दिन मुझे फिल्मों से भी नफरत हो गयी. और उस दिन मैंने यह कसम खाई की अब कभी भी अपने जीवन फ़िल्मी फोर्मुले नहीं अपनाऊंगा. यही सोचकर मैं टॉयलेट से बाहर निकल आया और घर की तरफ चलने लगा पर फिर पता नहीं मैं क्या सोचकर मैं दुबारा टॉयलेट में गया और जेब से परमानेंट मार्कर निकाल कर दिवार पर बड़े बड़े अक्षरों में लिख दिया “हाँ, रोहित अग्रवाल (12C), निहारिका कक्कर (11A) की लेता है”

समाप्त
 इस कहानी के सभी पात्र एवं घटनाएं काल्पनिक है.


02.08.2012